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"सम्मेद शिखर- विवाद क्यों और कैसा?"
सब को ईमानदारी से अध्ययन करना चाहिए जहाँ से संगठित जैन समाज को बंटना पड़ा या हमने बांटने का महा पाप अपने सिर पर लिया। यह समय और परिस्थितियों की हमारे लिए खुली चुनौती है। यदि इस गम्भीर चुनौती को मिल-बैठकर स्वीकार न कर पाये तो इतिहास हमें कभी क्षमा नहीं करेगा ।
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यदि जैन धर्म के अनुयायी सम्प्रदायों और गुटों में बंट कर भी जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों की हत्या न कर, त्यागतपस्या के क्षेत्र में प्रतिस्पर्द्धा को महत्व देते तो निश्चय ही ये सम्प्रदाय और गुट जैन धर्म को आगे बढ़ाने के स्वतः ही प्रतीक बन जाते और जैन धर्म के अनुयायियों का गौरव बढ़ता पर जैन धर्म के अनुयायियों ने बंटकर अपने को श्रेष्ठ बनाने की बजाय एक-दूसरे की निन्दा और आलोचना करने के साथ जो झगड़े- टंटें खड़े किये हैं वे जाने-अनजाने जैन धर्म का भयंकर अहित कर पाप के भागी बन रहे हैं।
मतभेद तो परिवार के सदस्यों में भी होते हैं लेकिन मतभेद को मनभेदों तक फैलने अथवा फैलाने की प्रक्रिया को यदि कोई परिवार न रोक सके तो उस परिवार को नष्ट होने से बचाना कठिन ही नहीं असम्भव हो जाता है।
आज जब कि समूचे जैन समाज को संगठित होकर जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार में अपनी शक्ति और साधनों का सद् उपयोग करना चाहिए वहाँ प्रबन्ध में हक प्राप्ति के लिए तथाकथित विवाद खड़ें कर राजनीतिक प्रभाव के सहारे उन्हें हल करने-कराने का प्रयत्न करना समाज और
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