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________________ 34 44 " सम्मेद शिखर - विवाद क्यों और कैसा?" श्वेताम्बर समाज में आपसी मतभेद उत्तरोत्तर गम्भीर रूप से बढ़ते जा रहे हैं । सब से पहिले दिगम्बर समाज ने अदालत का दरवाजा खट-खटाया लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। इसके बाद एक-एक कर कई अदालतों के दरवाजें खट-खटाने के बावजूद भी जब दिगम्बर समाज को वांछित सफलता नहीं मिली तो उसने बिहार सरकार को सम्मेद शिखर के प्रबन्ध को लेकर शिकायतें प्रस्तुत की और राजनैतिक दबाव का सहारा लेने का अन्तिम शस्त्र चलाया। - स्मरण रहे कि सम्मेद शिखरजी तीर्थ सन् 1593 में बादशाह अकबर ने श्वेताम्बर जैनाचार्य श्री हीर सूरीश्वरजी म.सा. को अर्पण कर पट्टा करवा दिया था। इसके पश्चात् अहमदशाह ने सन् 1760 में पुनः श्वेताम्बर जैनों का मालिकी हक और अधिकारों की स्वीकृति दी । सन् 1918 में ब्रिटिश सरकार ने भी रजिस्टर्ड कन्वेयन्स द्वारा श्वेताम्बर जैनों के पट्टे की मंजूरी प्रदान की। सन् 1933 में फिर ब्रिटिश प्रिवी कॉउन्सिल ने श्वेताम्बर जैनों के हक और मालिकी को स्वीकार किया । संख्या बद्ध लिटिगेशन के बाद प्रिवी कॉउन्सिल ने अपना अन्तिम फैसला 12.5.1933 को देकर इसकी पुष्टि की कि इस तीर्थ के स्वामित्व, प्रबन्ध, शासन एवं कब्जे का सम्पूर्ण हक श्वेताम्बरों को है तथा दिगम्बरों को केवल पूजा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035236
Book TitleSammetshikhar Vivad Kyo aur Kaisa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanraj Bhandari
PublisherVasupujya Swami Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1998
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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