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दो शब्द
सारे संसार में दुःख का दावानल प्रज्वलित हो उठा है। जिसकी संस्कृति में आध्यात्मिक भावना का प्राधान्य रहा है, वह भारतवर्ष में भी इससे बच्चा नहीं है। कारण स्पष्ट हैं, भारतवर्ष में भी जड़वाद ने अपना आतंक जमा दिया है। क्रोत्र, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ, असत्य, अनीत और तज्जन्य हिंसक मनोवृत्ति सर्वव्यापी बन गई है। उसकी प्रतिक्रिया का फल आज भारतवर्ष भी भोग रहा है । प्रात्मिक बुराइयों का फल अच्छा कभी नहीं हो सकता । जो लोग दूसरों का ईर्ष्या द्वेष करके राजी होते हैं उनका राजोपन तब तक है :
"जब तक पूरबल पुण्य की पू'जी नहीं करार ।”
पुष्य की पूंजी खत्म होने पर वह दरदर का भिखारी बनता है। रोगशोक-संताप से आक्रान्त हो जाता है, सारे संसार के लिए वह दयापात्र बन जाता है । दूसरों को दुखी करके स्वयं सुखी कोई हो नहीं सकता । सूखे पत्ते को गिरते हुए देख कर हंसने वाली कोंपलें भूल जाती हैं कि कल हम भी सुड़ेंगे और गिरेंगे ही। कभी-कभी तो पाप का फल तत्काल देखने में आता है। सत्ता के या श्रीमंताई के मद में निर्दोष को सताने वाले के ऊपर एकदम आफत आ जाती है, तब दुनियां को यह कहने का मौका मिल जाता है कि "देखा, कुदरत किसी को नहीं छोड़ती ।" इसी लिए तो शास्त्रकारों ने कहा है:
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श्रत्युप्रपुण्य पापानामिहैव लभ्यते फलम् ॥
कुदरत को या ईश्वर के इन नियमों को जानते हुए, समझते हुए मोर देखते हुए भी, मनुष्य की प्रात्मा पर मोह का ऐसा पर्दा गिरा
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