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५-अब इस लेख को पूर्ण करने के पूर्व एक प्रधान बात की तरफ पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। यद्यपि यह निर्विवाद सिद्ध बात है कि हमारी भारतीय प्रजा में पीढ़ी दर पोढ़ी से संस्कारों की मलिनता चली आई है, शुद्ध-गृहस्थाश्रम प्रायः नहीं रहा है, इसलिये हमारे बालकों में चरित्र-निर्माण के योग्य जैसी पात्रता होनी चाहिये, वैसी नहीं है। फिर भी हमें चरित्र-निर्माण तो करना ही है । प्रयत्न करेंगे तो आज, नहीं तो, वर्षों, युगों के पश्चात् तो हम अवश्य ही साफल्य प्राप्त करेंगे, ऐसी आशा रखते हुए हमें प्रयत्न करना है।
चरित्र-निर्माण का सीधा सम्बन्ध शिक्षकों के साथ में है। माना कि आधुनिक छात्रों में प्रायः जैसी चाहिए वैसी पात्रता न हो, माना कि शिक्षकों के साथ में केवल चार या पांच घण्टे तक ही विद्यर्थियों का सम्बन्ध रहता है और माना कि आज के शिक्षक इन्हीं विद्यार्थियों में से शिक्षक बने हैं। ('शिक्षक' से मेरा तात्पर्य केवल पढ़ाने वालों से ही नहीं है, शिक्षक, निरीक्षक,
और परीक्षक सभी से है जिनका सम्बन्ध एक या दूसरी रीति मे छात्रों के साथ में है ) ऐसा होते हुए भी शिक्षकों की जवाबदारी बहुत जबरदस्त है ऐसा मैं मानता हूं। 'शिक्षक' शिक्षक ही नहीं बल्कि 'गुरु' हैं, वे शिल्पकार हैं। पत्थर खराब होते हुए भी, अगर शिल्पकार चतुर है, तो उसमें से एक सुन्दर मुर्ति का निर्माण कर सकता है, बल्कि अधिक कुशल शिल्पकार बाल ( रेती) को भी तो मूर्ति बनाता है । 'शिक्षक' एक फोटोग्राफर है, लेन्स हल्का होते हुए भी वह अपनी कुशलता से सुन्दर चित्र नहीं खींच सकता क्या ? शिक्षक के ऊपर विद्यार्थियों की ओर से दो जवाबदारियां हैं। विद्यार्थियों को सुशिक्षित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com