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हिंसा का परिणाम
'दुख, यह भूल का फल है ।' संसार का यह अटल नियम है कि गलती के बिना दुःख कभी नहीं आ सकता | जब मनुष्य के ऊपर दुःख आता है, तब वह दूसरे पर दोष देने का प्रयत्न करता है, किन्तु वह भूल जाता है कि दूसरा तो केवल निमित्त कारण है । दुःख का उपादान तो खुद की भूल है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र सभी के यह नियम लागू होता है । देश में भूकम्प आता है, आग का प्रकोप होता है, पानी की बाढ़े आती है, अतिवृष्टि अनावृष्टि दुष्काल पड़ता है, प्लेग, हैजा, 'इन्फ्ल्युएन्जा' मैंनिनजाईटिस, ऐसे ही अन्याय रोगों से हजारों लाखों मनुष्यों की 'मृत्यु होती है, टिड्डी दलों से आबाद कृषि बरबाद हो जाती है, जानवरों का उपद्रव होता है, इत्यादि अनेक प्रकार के दुख मानवजाति पर आते हैं। उम्र समय दूसरा कोई उपाय न चले तो, हम या तो ईश्वर के ऊपर उसका आरोप मढ़ते हैं या कुदरत के ऊपर | 'क्या करें ईश्वर की मर्जी है जो देश के ऊपर ऐसी आपत्ति आई ! या यूं कहेंगे, 'क्या करें ? यह तो कुदरत का प्रकोप है !' यही दो ऐसे हैं जो हमारे लाजवाब के लिये जबाबदार बनाये जाते हैं। यदि ये दोनों मुसिबत होते, तो न मालूम मानवजाति अपनी भूल के बदले उनके साथ कैसा कैसा व्यवहार करती ? किन्तु ये दोनों मूर्तिमन्त न होते हुए भी, 'मानव जाति की भूलों का प्रायश्चित्त उत्तरोत्तर अधिकाधिक जो मिल रहा है, उसका तमाशा अदृश्य में रहकर खूब देख रहे हैं। चाहे जगत कितनी गालियाँ दे, और चाहे घोरातिघोर पापों को करते हुए, 'उसकी कितनी भी प्रार्थना करें, किन्तु उसको उसका स्पर्श तक नहीं होता ।
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