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श्रेष्टिगोत्र और समरसिंह ।
४७ आदि होती है । आज भगवान की रथयात्री का पर्व दिवस है अतः हमारी सब की अनुनय यही विनय है कि आज इस समप्र नगर में जीवहिंसा वन्द होनी चाहिये। इन लोगों की यही प्रार्थना है।
उपर्युक्त विवरण को सुनकर राजा जैत्रसिंहने हंस कर वेसट से कहा कि ये बनियों का धर्म भी कैसा है कि जिसमें अहिंसा की उद्घोषणा सब से प्रथम कराई जाती है और शेष सब कार्य बाद में होते हैं । श्रेष्ठिवर्य श्री बेसटने निसंकोचपूर्वक राजा को तत्क्षण प्रत्युत्तर दिया कि राजन् ! यह अहिंसा धर्म केवल बनियों का ही है ऐसा कोई ठेका नहीं है। जैसे गंगा नदी के पवित्र जलको काम में लाने का किसी एक व्यक्ति या जाति का ही ठेका नहीं है उसी तरह यह इस आहंसा धर्म का लाभ भी केवल एक ही जाति को नहीं मिलता है बल्कि जो कोई प्राणी अहिंसा धर्म का पालन करता है वह इसके मृदुफलों का अवश्य आस्वादन करता है । खास कर यह अहिंसा धर्म तो क्षत्रियों का ही है कारण कि जैनों के चौबीसों धर्म के प्रवर्तक जो बड़े तीर्थकर हुए हैं वे सब के सब क्षत्रिय ही थे।
प्राचीन समय के भरत सागर जैसे चक्रवर्ती और राम कृष्ण जैसे अवतारिक पुरुष हुए हैं वे सब भी अहिंसा धर्म के ही उपासक थे । आपके और हमारे पूर्वज परमार-वंश-मुकुट राजा १ रथस्यदेव तस्तस्य भविष्यति पुरेऽधुना ।
यात्रा ततो जीवभारि वारणं याचते जयः ॥ ७१ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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