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श्री जैन ऐतिहासिक ज्ञान सरोज नं. १.
॥श्री रत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः ॥ श्रीमदुपकेशगच्छाचार्य श्री सिद्धसरि के उपदेश से शधुंजय तीर्थ के पंद्रहवे उपकेशवंशीय उद्धारक श्रेष्टिगोत्रीय
दानवीर नररत्न स्वनामधन्य
समरसिंह।
पहला अध्याय।
[शत्रुजय तीर्थ ] मयूरसर्पसिंहाद्या हिंसा अन्यत्र पर्वते । सिद्धा सिध्यन्ति सेत्स्यन्ति प्राणिनो जिनदर्शनात् ॥ बान्येपि यौवने वाध्ये तिर्यग्जातौ च यत्कृतम् । उत्पापं विलयं याति सिद्धाद्रेः स्पर्शनादपि ॥
अर्थात्-मयूर, सर्प और सिंह आदि जैसे क्रूर और हिंसक प्राणी भी, जो इस पर्वतपर रहते हैं, जिनदेव के दर्शन से क्रमशः सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। तथा बाल, यौवन और वृद्धावस्था में या तिर्यच जाति में जो पाप किये हों वे इस पुनीत पर्वत के स्पर्श मात्र से ही नष्ट हो जाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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