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समरसिंह सामंत और सहनपान, ये दोनों भाई हायमें श्रेष्ठ श्रृंगार रखे हुवे थे । हमारे चरितनायकने भक्तिपूर्वक पिता के पैरोंसे लेकर नौ अंगों की तिलक करके पूजा की। चंदन तिलकवाली ललाटपर अखंड अक्षत लगाये और पिता के गले में पुष्पहार डाला । संघ के दूसरे पुरुषोंने भी देसलशाह के पैर और ललाटपर तिलक कर
आरती से पूज संघपति के कंठमें पुष्पहार डाले । चारों ओर सुवर्ण वृष्टि होने लगी। जिनेन्द्रके गुण गानेवाले गवैयों को हमारे चरित नायकने अपने सोनेके कंकण, घोड़े और वस्त्रों के दानसे प्रसन्न किया। देसलशाहने आदीश्वर भगवान की आरती करने के पश्चात् प्रणाम कर मंगल दीपक हाथमें लिया। द्वारभट्ट (बारोट)
और भाट भादि युगादीश्वर के गुणगानमें निरत थे । बिरदावली बोलते हुए बंदीजन देसलशाह और समरसिंह की प्रशंसा कर रहेथे । हमारे चरितनायकने हर्षसे चांदी, सोना, रत्न, घोड़े, हाथी और वनों आदि का दान बारोट तथा भाटों को दिया । बजते हुए बाजाओं के निनाद में देसलशाहने कर्पूर जलाकर मंगल दीपक उतारा । संघ सहित शक्रस्तव से आदि जिन की स्तुति की गई। प्राचार्य श्री सिद्धसूरि भी शकस्तव के बाद अमृताष्टक स्तवनसे स्तुति कर देसलशाहके साथ वापस आए । इसी प्रकार पांचों पुत्रोंने संघ सहित भारती उतारी । १ चन्दनस्य पितुः पादावाराभ्याय नवाप्यसौ ।
अनानि तिलकैः साधुभक्तिमार्चयत् स्मरः ॥ ( नाभिनंदनोद्धार प्रबंध का प्रस्ताव पाँचवे का ८१८ वा श्लोक )
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