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समरसिंह लगे यह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था। इन रंगरलियों में निमम होते हुए भी चैत्य पर से सोना, चांदी, अश्व, वस्त्र और आभूषणों का दान दिया जा रहा था। कल्पवृक्ष की नाई सुवर्ण, रत्न और आभरणों की अनवरत वृष्टि हो रही थी । पाँचों भाई पाँडवों की तरह क्रमसे सहजपाल, साहणशाह, हमारे चरितनायक, सामंतशाह और सांगणशाह धनवृष्टि कर रहे थे ।
सं. देसलशाहने शिखरपरसे उतर कर प्रभुके सम्मुख उपस्थित हो देव शिरोभागसे शुरुकर बलानक मंडप के आगे के भाग में होती हुई चैत्यदंड पर्यंत पट्टदुकूलयुक्त महा ध्वजाऐं बांधी। अनेक चित्रवाले हिमांशु, पट्टांशु और हाटकांशु ऐसे तीन छत्र और दो उज्ज्वल चामर आदि जिनके पास रखे गये । इसके अतिरिक्त सोनेके दस्तेवाले चांदी के तांतणों से बनाए हुए दूसरे दो चामर भी दिये गये। सोना, चांदी और पीतल के कलश, मनोहर भारती और मंगलदीपक भी दिये गये । सारी चौकियों पौर मंडलों में पट्ट दुकूलवाले मोतियों के गुच्छोंसे युक्त वितान (चंदरवे ) बांधे गए । आदीश्वरके सम्मुख संघपति देसलशाहने अखंड अक्षत, सुपारी, नारियल और आभूषणों आदिसे मेर पूरा। उस मेरुपर जिनजन्माभिषेक का अनुकरण किया गया।
उपवासी व्रतनिष्ठ सं. देसलशाहने पुत्र पौत्रों सहित दूसरे सर्व जिनों को पूजकर दस दिन तक महोत्सव मनाया । धनसार, श्रीखंड, पुष्प और कपूर से विशेपन किया गया । रात्रिको साहण
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