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________________ समरसिंह. कैसे धर्मप्रेमी दयालु नरेश हो गये हैं। हमारी कामना है कि फिर ऐसे दानी और दयालु धर्मी नरेश भारत भूमिपर जन्म ले कर भारत भूमि के पराधीनता के पाशों को ढीला कर सुकृत की सरिता बहा कर फैले हुए हिंसा रूपी मलों को दूर करने में समर्थ हों। इस प्रकार खान में काम हो रहा था। राणा महीपालदेव आते जाते हुए मनुष्यों के साथ समाचार भेजता रहता था । थोड़े दिनों के बाद फलही निकाली गई। बाहर निकाल कर फलही को धोया तो मालूम हुआ कि फलही के बीच एक रेखा है । फलही अखंड नहीं रही। जब यह समाचार हमारे चरित नायक के पास पहुँचा तो तुरन्त इन्होंने राणा महीपाल को लिखा कि खण्डित फलही दूषित है अतएव दूसरी फलही निकलवाना आवश्यक है । काम फिरसे प्रारम्भ किया गया । उधर उस खंडित फलही के दो टुकड़े होगये । यह देखकर राणा और उसके सूत्रधार आदि कर्मचारी व अधिकारी सब चिंतातुर हुए । समरसिंह के अधिकारियोंने जो फलही के पास नियुक्त थे उन्होंने अष्टम तप कर डाभ का संथारा पर भासन लगाके ध्यान किया। तीसरे दिन रात को साक्षात् शासनदेवी और कपर्दी यक्ष प्रकट हुए और मंत्री को सम्बोधन करते हुए ललकारा, "मंत्रीश्वर ! आप श्रावकों में शिरोमणी और जैनधर्म के विशेष झाता हो। किन्तु मापने यह काम एक अनभिज्ञ व्यक्ति की तरह कैसे प्रारम्भ किया १ कोर्ट के प्रारम्म में हमारा स्मरण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035229
Book TitleSamarsinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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