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उपगच्छ - परिचय |
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के विधान के हित निकटवर्त्ती अन्य गच्छ के गुरुषों के समीप भी जाना पड़ता था । ऐसी वस्तुस्थिति में अपनी स्वार्थसिद्धि के हेतु वे अन्य गच्छ के गुरु यह शर्त उपस्थित करते थे कि यदि तुम हमारे गच्छ के उपासक बनके हमारे गच्छ की क्रिया करना स्वीकार करो तो तुम्हारे साथ चलके हम तुम्हें क्रियाविधान में अवश्य सहायता देंगे अतः गृहस्थों को विवश होकर अपने गच्छ की क्रिया का परित्याग कर अन्य गच्छ को स्वीकार करना पड़ता या अतः गच्छ की शृङ्खला का नियम टूटने लगा । क्रमशः इसका परिणाम यह हुआ कि एक ही गोत्र = जाति पृथक् २ गच्छोपासक बन गई एक प्रान्तमें एक जाति अमुक गच्छोपासक है तो दूसरे प्रान्त में वही जाति दूसरे ही गच्छ की क्रिया करती है। शुरूसे जिसने अपने गच्छ की क्रिया बदली थी वह बदलनेवाला मूल पुरुष तो यह जानता था कि हमारा गच्छ अमुक है पर इस कारण से हमने अमुक गच्छ की क्रिया करना स्वीकार किया था पर उन्हके दो तीन या अधिक पीढ़ियां के बाद तो वे अपने प्रतिबोधक आचार्य और गच्छ तक को भूलके कतघ्नी हो उस उपकार के बदले में अपकार करने को भी तैयार हो जाते थे तथा आज भी ऐसे कृतन्नियों की कमी नहीं है । इस विषय को विस्तारपूर्वक लिखने का यहाँ अवकाश नहीं है पर वस्तुस्थिति का ज्ञान कराने के लिये फिर समय पाकर पाठकों के सामने रक्खुगा ।
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