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( ९७ ) १२ [प्रश्न ] उक्त शास्त्रों के वचनानुसार पहिली सामायिक दंडक उच्चर के पीछे ईरियापही करते हैं तथापि कहते हो कि पहिली ईरियावही किये विना किंचित् भी धर्मकृत्य शुद्ध नहीं होता है, तो जिनमंदिर में चैत्यवंदन और साधु को वंदना करना तथा पञ्चख्खान, दान, नवकार मंत्र का जाप, स्वाध्याय ( पठनपाठन ), व्याख्यान, पंचपरमेठी ध्यान इत्यादि भावयुक्त धर्मकृत्य इरियावही किये विना करते हो सो शुद्ध मानते हो या अशुद्ध ?
१३ [ प्रश्न ] श्रीदेवेंद्रसरिजी के शिष्य महोपाध्याय श्रीधर्मकीर्तिजी ने संघाचार नाम की चैत्यवंदनभाष्य की टीका में लिखा है कि___ दृद्धाः पुनरेवमाहुः उत्कृष्टा चैत्यवंदना ईर्याप्रतिक्रमण पुरस्सरैव कार्या अन्यथापि जघन्या मध्यमेति ततः सामान्योतावऽपि यो विधिर्यत्र नामग्राई प्रोक्तः स तत्र कार्य इतितत्वं।
भावार्थ-वृद्ध पूर्वाचार्य महाराजों ने ऐसा लिखा है कि उत्कृष्ट चत्यवंदना ईरियावही पहिली करके करने की है और ईरियावही किये विना भी जघन्य तथा मध्यम चैत्यवंदना की जाती है उस लिये सामान्य कथन में भी जो विधि जहाँ नाम ले के कही हो वह विधि वहाँ करना, यह तत्त्व बात समझना तो श्रीयावश्यकलत्र बृहत्टीका आदि अनेक ग्रंथों में अनेक वृद्ध पूर्वाचार्य महाराजों ने नवमा सामायिक व्रत का नाम ले के उसकी विधि में पहिली करेमि भंते सामायिक दंडक उच्चर के पीछे ईरियावही करना लिखा है, वास्ते इस विधि को करना पगच्छवाले क्यों नहीं स्वीकार करते हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com