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टीका - श्रावण गृहे सामायिकं कृतं ततोऽसौ साधुसमीपे गत्वा किं करोति इत्याह काऊण० साधुसाक्षिकं पुनः सामायिकं कृत्वा ईय प्रतिक्रम्यागमनमालोचयेत् तत श्राचार्यादीन् वंदित्वा स्वाध्यायं काले चाssवश्यकं करोति ।। ३० ।।
भावार्थ - श्रावक ने घर में सामायिक किया है पीछे वह श्रावक साधु के पास जाके क्या करे ? सो मूलसूत्रकार कहते हैं कि साधु साक्षिक फिर करेमि भंते सामायिक दंडक उच्चर के पीछे इरियावही पडिक्कम के आगमन आलोचे बाद प्राचार्य आदि को वंदना करके स्वाध्याय और कालवेला में आवश्यक ( प्रतिक्रमण ) करे । यहाँ पर मूलसूत्र गाथा तथा टीका इन दोनों में सामायिक उच्चरणे के पीछे इरियावही करना लिखा है पहिले नहीं, तो तपगच्छवालों को अपने पूर्वजों की इस उक्त आज्ञा का पालन करना उचित है या नहीं ?
१० [प्रश्न ] यह है कि तपगच्छ के श्रीहीरविजयसूरिजी के संतानीये श्रीमानविजयजी उपाध्याय कृत तथा श्रीयशोविजयजी उपाध्याय संशोधित. श्रीधर्मसंग्रहप्रकरण ग्रंथ की टीका मेंआवश्यकसूत्रमपि सामायि नाम सावज्जजोगपरिवज्जं रिवज्जज्जोगपडि सेव च इत्यादि अधिकार में लिखा है कि
साध्वाश्रयं गत्वा साधून नमस्कृत्य सामायिकं करोति तत्सूत्रं यथा करेमि भंते सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चख्खामि जाव साहू पज्जुवासामि दुविहं तिविहेां मणेणं वायाए कारग न करेमि न कारवेमि तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पां वो सिरामित्ति एवं कृतसामायिक ईर्ष्यापिथिक्याः
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