SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६३ ) नियमं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणमित्याधुच्चारणतस्ततः ईर्यापथिकायाः प्रतिक्रमति पश्चादालोच्य वंदते आचार्यादीन् यथा रानिकतया पुनरपि गुरुं वंदित्वा प्रत्युपेक्ष्य निविष्ठः पृच्छति पठति वा एवं चैत्येष्वपि इत्यादि। भावार्थ-ऊपर की तरह जानना, इस पंचाशक टीकापाठ में नवांगटीकाकार महाराज ने पहिली करेमि भंते सामायिक दंडक उच्चर के पीछे इरियावही करना लिखा है, सो तपगच्छवाले वैसा करना मानते हैं या नहीं? ६ ( प्रश्न यह है कि श्रीयशोदेव उपाध्यायजी महाराज ने नवपदप्रकरण-विवरण में लिखा है कि आगतः साधून् त्रिविधेन नमस्कृत्य तत्साक्षिकं पुनः सामायिकं करोति-करेमि भंते सामाइयं सावज्जं जोगं पञ्चख्खामि जाव नियमं पज्जुवासामीत्यादिसूत्रमुच्चार्य तत ईर्यापथिकी प्रतिक्रामत्यागमनं चालोचयति तत आचार्यादीन् वंदते यथा रत्नाधिकतया अभिवंद्य सर्वसाधून उपयुक्तः सन् उपविष्टः पृच्छति पठति वा पुस्तकवाचनादि करोति इत्यादि । भावार्थ-उपर्युक्त प्रमाणों की तरह स्पष्ट विदित होता है याने इस पाठ में भी साफ लिखा है कि पहिली करेमि भंते सामायिकदंडक उच्चर के पीछे इरियावही करना, यह शास्त्रकारों की आज्ञा तपगच्छवाले मानते हैं या नहीं? ७ [प्रश्न ] यह है कि संवत् ११८३ में चंद्रगच्छ के श्रीविजयसिंह प्राचार्य महाराज कृत श्रावक प्रतिक्रमण चूर्णि में लिखा है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035214
Book TitlePrashnottar Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy