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( ८० ) करके किस गच्छ के और किस नवीन शुद्ध संयमी गुरु के शिष्य हुए मानते हो? __ ३ [प्रश्न ] श्रीधर्मरत्नप्रकरण ग्रंथ में चित्रवालक गच्छ के श्रीभुवनचंद्रसूरि उनके शिष्य श्रीदेवभद्रगणि उनके शिष्य श्रीजगञ्चंद्रसूरि उनके शिष्य श्रीदेवेंद्रसूरि ने यह उपर्युक्त अपने पूर्वजों की गच्छनाम-सहित-गुरु-शिष्य-परंपरा मानना बतलाया है अन्य नहीं, तो श्रीदेवेंद्रसूरिजी के उक्त कथन से विरुद्ध अपने मन से बृहत् गच्छ तथा श्रीमणिरत्नसरि उनके शिष्य श्रीजगञ्चंद्रसूरि यह गुरु-शिप्य-परंपरा मानना क्यों बतलाते हो?
४ [प्रश्न शिथिलाचारी गुरु को त्याग कर शुद्ध संयमी गुरु से उपसंपद दीक्षादि ग्रहण करके उनका शिप्य तथा उसी गच्छपरंपरा में होने के लिये श्रीजगञ्चंद्रसूरिजी ने चित्रवालगच्छ के श्रीदेवभद्रगणिजी के पास उपसंपद दीक्षादि ग्रहण करके उन गुरु को और उनकी परंपरा को तथा उन्हीं के गच्छ को धारण किया, क्योंकि जिसने जिसके पास उपसंपददीक्षा ग्रहण की हो वह उसी का शिप्य तथा उसी के गच्छ का होता है। वास्ते पीछे प्रथम गुरु की परंपरा में और उन गुरु का शिप्य तथा उन प्रथम गुरु के गच्छ का वह नहीं रहता है । यह मंतव्य श्रीदेवेंद्रसूरि जी के उक्त कथन से स्पष्ट विदित होता है, तो आप अपनी पट्टावली में इसी एक मंतव्य को क्यों नहीं मानते हो ?
५ [प्रश्न , श्रीदेवेंद्रसूरिजी के उक्त कथन से विदित होता है कि-श्रीजगच्चंद्रसूरिजी ने उपसंपद दीक्षादि लेकर चैनवाल गच्छ को तथा उस गच्छ के श्रीदेवभद्रगणिजी को और उनके पूर्वजों की परंपरा को स्वीकार किया और अपने प्रथम के गुरु भीमणिरत्नसूरिजी को तथा उनके पूर्वजों की परंपरा को और
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