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का नाम श्रीवर्द्धमानसूरिजी उनके शिष्य अपने गुरु का नाम श्रीजिनेश्वरसूरिजी, श्रीबुद्धि सागरसूरिजी उनके लघु शिष्य श्री प्रभयदेवसूरिजी ने यह श्रीभगवतीसूत्र की टीकाकरी श्रीजिनेश्वरसूरिजी के तथा श्रीबुद्धिसागरसूरिजी के पाटे बड़े शिष्य श्रीजिनचंद्रसूरिजी की आज्ञा से और श्रीजिनेश्वरसूरिजी के शिष्य श्रीजिनभद्रसूरिजी के तथा श्रीमभयदेवसूरिजी के चरण सेवक श्रीयशश्चंद्रगणिजी की सहाय से टीका करने में आई । यह श्रीमभयदेवसूरिजी महाराज ने अपनी गुरुशिष्य-पाटपरंपरा स्पष्ट लिख बतलाई है । और यह पाटपरंपरा खरतरगच्छवालों की है। उसमें नवांगटीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी हुए। तपगच्छ के श्रीमुनिसुंदरसूरिजी महाराज विरचित श्रीउपदेशतरंगिणी ग्रंथ में - "नवांगटीकाकार श्रीमभयदेवसूरिजी उनके शिष्य श्री जिनवल्लभसूरिजी प्रशिष्य श्रीजिनदत्तसूरिजी इन प्रभाविक आचार्यों की स्तुतिद्वारा खरतरगच्छवालों की गुरुशिष्य-प्रशिष्यपाट परंपरा दिखलाई है कि
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व्याख्याताऽभयदेवसूरिरमलप्रज्ञो नवांग्या पुनः । भव्यानां जिनदत्तमूरिरऽददद्दीक्षां सहस्रस्य तु ॥ प्रौढिं श्री जिनवल्लभो गुरुरऽधीद् ज्ञानादिलक्ष्म्या पुनः । ग्रंथान् श्रीतिलकश्चकार विविधान् चंद्रप्रभाचार्यवत् ॥ १ ॥ अर्थ-निर्मल बुद्धिवाले श्रीमभयदेवसूरिजी महाराज ने नवअंग सूत्रों की टीका करी, उनके प्रशिष्य श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराज ने १००० एक हज़ार भव्यजीवों को दीक्षा दी और चंद्रप्रभाचार्य की तरह ( श्री ) शोभा वा लक्ष्मी के तिलक समान नवांगटीकाकार के शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज ज्ञानादि लक्ष्मी से प्रौढ़ता को धारण करते हुए विविध ( अनेक ) ग्रंथों - को करते भये ।
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