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( २६ ) भणगारिनं पव्वइत्तए वयंचणं चाउद्दसऽठमुद्दिष्ट-पुण्णमासीणीसु पड़िपुण्णं पोसहं सम्ममऽणुपालेमाणा विहरिस्सामो ।
अर्थ-ऐसे कई श्रावक होते हैं कि जिन्होंने प्रथम ऐसा कहा है कि हम घर से निकल कर मुंड होके साधुपना स्वीकार करने को समर्थ नहीं है, इस लिये हम लोग चतुर्दशी, अष्टमी, (उद्दिठ) कल्याणक तिथियाँ और पूर्णिमा, अमावास्या इन पर्वदिनों में परिपूर्ण पौषधवत सम्यक् प्रकार से अनुपालन करते हुए वत्तेंगे।
एवं श्रीविपाकसूत्र आदि ग्रंथों में सुबाहु कुमार आदि ने अष्टम भक्त में याने तीसरे उपवास में चतुदशी अष्टमी आदि पर्वतिथियों में पौषध किया लिखा है । और धारणी माता को मेघवृद्धि रूप अकाल दोहला पूर्ण करने के लिये अभयकुमार ने तथा द्रौपदी को हरने के लिये पद्मनाभ राजा ने और द्रौपदी को लाने के लिये श्रीकृष्ण वासुदेव ने देवता को अाराधने के निमित्त पौषधशाला में तीन उपवास किये हैं, अतएव व्रत के निमित्त ये तीन पौषध नहीं हैं और श्रीविजयराजा ने भी विजलीपड़ने रूप उपद्रव टालने के निमित्त सातवें दिन मध्यान्ह समय नमोअरिहंताण कहकर पौषध पाला है । वह व्रतरूप पौषध नहीं था। व्रतरूप पौषध तो कल्याणक पर्युषणापर्व अष्टमी आदि पर्वतिथियों में करने शास्त्रकारों ने लिखे हैं।
प्रमाण श्रीदेवेन्द्रसूरिजी विरचित धर्मरत्नप्रकरण की बृहदवृत्ति में पाठ । यथा
पोषं पुष्टि क्रमाद्धर्मस्य धत्ते करोतीति पोषधः अष्टम्यादिपदिनाऽनुष्ठयो व्रतविशेषः ।
मार
राजा ने और
मत्त पौषधशालाण वासुदेव
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