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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
भाव प्रकट होता है । इस समरसी भाव का सुख समरसी भाववेदी ही जान सकते है अर्थात् वह अनुभवगम्य होने से वचन अगोचर है, परन्तु इसकी प्राप्ति का सच्चा उपाय निज हृदयकमल में नवपद का समझपूर्वक एकाग्रहपूर्वक ध्यान करना ही है । अतः प्रात्मार्थी जनों की दूसरी सब बातों को छोड़कर शान्तवृत्ति से अपने हृदय में इसी का ध्यान करना योग्य है।
१०१-प्रमुगुण मुक्तमाल सुखकारी, करो कंठशोभा ते भारी-मुक्तमाल कर्थात् मुक्ताफल जो मोती उसकी माला ( मोती की माला ) जिस प्रकार कंठ में धारण की जाती है तो कंठ अत्यन्त शोभा को प्राप्त होता है उसी प्रकार यदि जिनेश्वर प्रभु के केवलज्ञान, दर्शन, चारित्र प्रमुख अनन्त उज्ज्वल गुणरूपी मुक्ताफल की माला कंठ में धारण की जाय अर्थात् यदि प्रभुके सद्गुणों का ही रटन किया जाय अथवा मधुर कंठ से प्रभुके परम उज्ज्वल गुणों का गान किया जाय तो उसमें कंठ की सार्थकता है। स्वार्थवश जीव किस किसकी खुशामद नहीं करता ? जिसमें सद्गुणश्रेणी का प्राविर्भाव नहीं हुआ और जो दोषोंसे परिपूर्ण हैं उनकी : खुशामद से कोई लाभ नहीं होता । जिनको पूर्णता प्राप्त हो गई है. वे; किसी की खुशामद की इच्छा नहीं रखते, ऐसे पूर्णानन्द प्रभुके गुणगान ही अहोनिश गाना उचित है कि जिन के गुणगान करने से ऐसे ही, उत्तम गुणों की हम्हे प्राप्ति हो सके । कहां भी है कि “जिन उत्तम गुण गावतां, गुण आवे निज़ अंग" उत्तम लक्ष्य से प्रभु का गुणगान करनेवाला अपने सब दोषों का अन्त करके प्रभु के पवित्र पद को प्राप्त कर सकता है । ऐसा समझकर कृपण और नीच-नादान जनों को संगती: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com