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________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा विरला हो ज्ञानी तपस्वी साधु जन ही होता है । वैसे समतावंत तपस्वी साधु शिर से वन्दना करने योग्य है । शास्त्रनिर्दिष्ट तपस्या उक्त वेदना को नष्ट करने का उत्तम उपाय है। ८९-वक्र तुरंग इन्द्रि मन जानो-शास्त्र में इन्द्रियों कोतया मन को ऊल्टी चाल के घोड़े से उपमा दी है। जिस प्रकार ऊल्टी चाल का घोडा स्वार को विपरीत मार्ग में लेजा कर विडम्बना पात्र बना देता है परन्तु यदि उसको कोई ठोक करनेवाला कुशल (अश्वविद्या में निपुण ) पुरुष मिल जाय तो उसको ऐसा सुधार सकता है कि वह ही घोडा अल्प समय में उसके स्वामी को निश्चित मार्ग पर पहुँचा सकता है । इसी प्रकार वेवश अशिक्षित इन्द्रिया तथा मन भी स्वच्छन्दपन से अपने इच्छानुसार विषयप्रदेश में प्रयाण कर श्रात्मा को अनेक दुःख पहुंचाते हैं और अन्त में दुर्गति में लेजा कर डालती हैं, परन्तु जिन्होंने सर्वज्ञ प्रभू के वचनानुसार उनको ठीक प्रकार वशीभूत किया हों तो वे सत्मार्गानुसारी बनती हैं और सत्मार्ग में स्थित रह कर अपने स्वामी आत्मा को सद्गति भोक्ता बनाती हैं । अतः शास्त्रकार उपदेश करते हैं कि " यदि तुम को भवभ्रमण के दुःख का भय हो, और अचल, अविनाशी, अक्षय, अनन्त, अजरामर मोक्षसुख की चाह हो तो इन्द्रियों को वश में करने के लिये प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिये । ” “ यदि विषयसुख पर जय हो गई तो समझना चाहिये कि सब दुःखों का अंत हो गया है" इससे स्पष्ट है कि सकल सुख स्वाधीन करने की सच्चो चावी मन और इन्द्रियों को शास्त्रयुक्ति से स्ववश कर सन्मार्गगामो बनाना है, अतः यह ही हमारा कर्तव्य है। । ९०-कल्पवृक्ष संजम सुखकार-जिस प्रकार सर्व Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035213
Book TitlePrashnottarmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherVardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages194
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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