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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
र्यादित बना देती है और वह लोभाविष्ट को केवल दुःखी दुःखी ही बनाकर छोड़ती है। ऐसे अनन्त अपार दुःख दावानल के सतत परिताप से बचने के लिये जिसकी प्रबल इच्छा हो उसे लोभांधताको छोड़कर, तृष्णा को संकुचित (मर्यादित) कर संतोष वृत्ति धारणकरना हो उचित है ।
८५–भये पुरुष जो विषयातीत. ते जगमांहि परम अभीत-जिन्होने संतोषवृत्ति धारण कर अभ्यास द्वारा अनुक्रम से विषयवासना को निर्मूल बनादी है उनको संसार में कोई भय नहीं रहता । जिन्होंने रागद्वेषादिक विकार मात्र का विनाशकर दिया है उनको विषयवासना हो ही नहीं सकती, अतः वह जीव मुक्त है, इससे उसको पुनर्जन्म लेना नहीं पड़ता । अन्त में इस नश्वर देह को यहीं छोड़कर देहातीत हो अक्षय, अनन्त और अविचल मोक्षसुख को प्राप्त करता है अर्थात् जन्म, जरा और मरण सम्बन्धी सर्व भय से सर्वथा मुक हो जाता है। जबतक जीव में राग द्वेषादिक विकारों के वश में होने से विषयवासना जागृत रहती है तबतक जन्म, जरा, मरण सम्बन्धि भय उसके सिर पर मंढराते रहते हैं। जबकि विषयातीत को किसी भी प्रकार का भय नाहि रहता, ऐसा समझकर प्राज्ञ जनों को मन और इन्द्रियों को ज्ञानी पुरुषों के वचनानुसार दमकर, शुद्ध संयम का पालन कर विषयातीत निर्भव पद को प्राप्त करने के लिये विषक्कासना से दूर रहने को प्रतिदिन उद्यम करना चाहिये।
८६-मरण समान भय नहीं कोई-जगत के जीवों के मन में जो बड़े से बड़ा भय बना रहता है वह मृत्यु का है 'और वह वास्तविक भो है; क्योकि उसके साथ दूसरे भी
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