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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
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आनन्द से प्रवृत करता है और अन्य योग्य जनों को ऐसाही सदुपदेश करता है वह ही सच्चा पण्डित है।
८२. हिंसा करत मूढ सो होई-जगत मात्र को ऐकान्त सुख देनेवाली आप्त उपदिष्ट दया की विरोधिनी हिंसकवृत्ति को धारण करते हैं अर्थात् परम कृपालु परमात्मा द्वारा जगत्जंतुओं के ऐकान्त हित के लिये उपदेशित विद्वतापूर्ण दया का मार्ग छोड कर जो स्वमति से विपरीत वृत्ति धारण करता है वह चाहे जितना विद्वान् हों परन्तु तत्वदृष्टि जन तो उसको महामूर्ख को कोटि में ही गिनते हैं, क्योकि वह शुष्क ज्ञानी मोहवशात् इतना गहराभी श्रालोच नहीं कर सकता कि “ सब को जीवन प्यारा है, कोई भी मृत्यु की इच्छा नहीं करता । जैसा हमको दुःख होता है वैसा ही सब को होता है । " तो फिर जो हम को प्रतिकूल प्रतीत हो ऐसे दुःख का प्रयोग दुसरे प्राणो पर क्यो करना ? इतनी सी बात भी यदि कोई क्षणभर के लिये साम्य भाव रख कर विचार करे तो वह निर्दय काम से पिछा हठ सकता है और जैसे जैसे इस बात को अधिक दया लग्न से विचारा जाय वैस वैसे निर्दय काम करने में कम्प. कंपी छूटने लगती हैं और अन्त में निर्दय काम हो ही नहीं · सकता । जो मूढ मानव राक्षसों के समान रसना की लोलुपता से मांसभक्षण और श्राखेट ( मृगया. जीववध) करते हैं वे कठोर हृदय नरपशु अपने समीप मरण की शरण आये जानवरों की दुःखभरी लग्न क्या देख नहीं सकते ? क्या वे दीन अनाथ जानवर अपने बालबच्चों को रोते बिलबिलाते छोड़कर उन नरदैत्यों के लिये अपनी खुशी से मृत्यु की शरण लेना
पाहते हैं ? जिस प्रकार इनको उनकी इच्छा विरुद्ध निर्दयता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com