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प्रश्नोत्तररत्नमाळा डरत पापथी पंडित सोई, हिंसा करत मूढ़ सो होई । सुखिया संतोषी जगमाही, जाकुं त्रिविध कामना नाहीं ॥२६॥ जाकुं तृष्णा अगम अपार, ते म्होटा दुःखिया तनुं धार । भये पुरुष जो विषयातीत, ते जगमाहे परम अभीत ॥ २७ ॥ मरण समान भय नहीं कोई, पंथ समान जरा नवि होई । प्रबल वेदना क्षुधा वखाणो, वक्र तुरंग इन्द्रि मन जाणो॥२८॥ कल्पवृक्ष संजम सुखकार, अनुभव चिंतामणि विचार । कामगवी वर विद्या जाण, चित्रावेली भक्ति चित्त आण ॥२९॥ संजम साध्या सवि दुःख जावे, दुःख सहु गयामोक्षपद पावे । श्रवण शोभा सुणीये जिनवाणी, निर्मल जिम गंगाजल पाणी॥३०॥ नयन शोभा जिनबिंब निहारो, जिनपडिमा जिन सम करीधारो। सत्य वचन मुख शोभा सारी, तज तंबोल संत ते वारी ॥३१॥ करकी शोभा दान वखाणो, उत्तम भेद पंच तस जाणों। मुजाबले तरिये संसार, इण विध भुज शोभा चित्त धार ॥३२॥ निर्मल नव पद ध्यान धरीजे, हृदय शोभा इण विध नित कीजे। प्रभुगुण मुक्तमाल सुखकारी, करो कंठ शोभा ते भारी ॥३३॥
. ७९-मोह समान रिपु नहीं कोई, देखे सहु अन्तरगत जोई मोह समान कोई भी कट्टर (दुसरा) शत्रु दुनियां में नहीं यह बात आत्मा में ही उंडां विचार करने से प्रकट हो सकती है । राग, द्वेष, कषाय, विषयलालसा, अहंता और ममतादिक सब माह का ही परिवार है। यह जीव को भिन्न
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