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________________ :: ३९ :: प्रमोत्तररलमाला भव से तीसरे भव में इस प्रकार भवपरम्परा का अपनी ही गंभीर भूल से भवचक में परिभ्रमण किया ही करता है। ४८. थिर एक जिन धर्म हितकार-इस अस्थिर संसार में यदि कोई स्थिर, सार और हितकर वस्तु प्राप्त हो सकती है तो वह जिनेश्वर भगवान् द्वारा भाषित धर्म ही है । अर्थात् प्रत्येक प्रात्मद्रव्य में जातिवंत रत्न की ज्योति के सदृश मत्तागत व्याप्त शुद्ध सनातन ज्ञान दर्शन चारित्रादिक धर्म सदास्थिर, साररूप और ऐकान्त हितकर है। उसी प्रकार उक्त आत्मधर्म को व्यक्त-प्रकट करने के लिये सर्वत्र परमा. स्मा से निर्मित किये साधन भी प्रवाहरूप से सदा विद्यमान है। निर्मल स्फटिक रत्न के सदृश आत्मा का मूल सत्तागत स्वभाव निकषाय अर्थात् क्रोधादिक कषाय रहित है, किन्तु जिस प्रकार उपाधि (उपर रखे राते काले पुष्पों) के सम्बन्ध से स्फटिक भी राता काला मालूम पड़ता है, उसी प्रकार आत्मा भी पुण्य पाप के योग से रागद्वेषरुप परिणाम को प्राप्त होती है अर्थात् सकषायी बनती है । जैसे स्फटिक रत्न ऊपर रखे हुए पुष्परूप उपाधि सम्बन्ध को दूर करने से स्फटिकरल जैसा का तसा उज्ज्वल प्रतित होता है, उसीप्रकार आत्मा के साथ लगे हुए पुण्य पाप से हुए रागद्वेषरूप परिणाम को दूर करने से आत्मा निर्मल-निरावरण-निष्कषायनिविकल्प बना रहता है। उस समय तरंग रहित रत्नाकर में रत्नकी गशि के सदश अन्तज्ञान दर्शन और चारित्रादिकसदगुणों का समूह आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेश में जलकित व्यक-प्रकट हो जाता है। आत्मप्रदेश में सदा सत्तागत व्याप्त सद्गुणसमुदाय को जो रागद्वेषादिक कर्म आवरण प्रकट नहीं होने देते हैं उन रागद्वेषादिक. को समूल, दूर करने के लिये सदा सचेत रह कर सर्वज्ञ देशित सत् साधनों को ग्रहण करना-सदुद्यम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035213
Book TitlePrashnottarmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherVardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages194
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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