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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
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मिथ्याई । उसका नहीं किति एवं
रोग मिटना कठिन है और बिना इसके मिटे अनन्त अव्याबाध अक्षयसुख मिलना भी असम्भव है।
२६. मिथ्याग दुःख हेत अबोध-जिससे मिथ्यात्वजन्य अनन्त अपार दुःख पैदा हो वह ही अबोध या अज्ञान है। मिथ्यात्व यह महाशल्य, महाविष, महाव्याधि और महादुःखरूप है । उसको तथा उसकी महान व्यथा को जो न मिटा सके उसे ज्ञान नहीं किन्तु अज्ञान ही समझना चाहिये । जो स्वयं ही पूर्वोक्त मिथ्यामति एवं मिथ्यावासना से भरे हुए हैं वे बेचारे दूसरों के मिथ्यात्व को क्योंकर मिटा. सकते हैं ? जो स्वयं ही भवोदधि में अनेकशः डूबते हो वे दूसरों को कैसे तार सकते हैं। जिनको खुद को भी सम्यग्दर्शन सम्यक्त्व प्रकट नहीं हुआ वे दूसरे अर्थीजनों को किस प्रकार सम्यग्दर्शन प्रकटा सकते हैं ? जो स्वयं ही निरन्तर निर्धन दुःखी स्थिति में दुःख भोगते रहते हैं वे दूसरों को शाश्वत सधन सुखी स्थिति किस प्रकार प्राप्त करा सकते हैं ? अत: जिसकी मिथ्यावासना दूर करने की अन्तःकरण से इच्छा हो उसको ऐसे समर्थ निष्पक्षपाती संत सुसाधुजनों की हितशिक्षा मानकर, उसपर मनन कर, आचारविचार में भरसक प्रयत्न करना चाहिये । यह ही आत्मा के लिये एकान्त हितकारी मार्ग है और यह ही उपादेय है ।
२७. आत्महित चिन्ता सुविवेक-जिसमें आत्मा का हित कल्याण हो सके उसका हृदय में सदैव चिन्तयन (लक्ष्य) बना रहे इसे ही सुविवेक अर्थात् सच्चा विवेक कहते हैं । शेष विवेक तो केवल कृत्रिम या निरर्थक है । आत्मा क्या वस्तु है ? इसका स्वरूप क्या है ? इसके क्या गुण हैं ? इसकी शक्ति कितनी है ? उस पर किस प्रकार आवरण श्रा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com