SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नानपरत्नमाळा :: १४ :: ९. ध्येय वीतरागी भगवानःजिसने आत्मा-परमास्मा का स्वरूप समझ लिया है ऐसा अन्तरात्मा ध्याता हो सकता है और जिसके समस्त दोषमात्र दूर हो गये हैं ऐसे वीतराग परमात्मा ध्यान करने योग्य ध्येय है। परमात्मा का ध्यान करनेवाले ध्याता ध्यान के प्रभाव से कीट (ऐल) भ्रमरी के द्रष्टांतानुसार स्वयं हो परमात्मा के रूप को प्राप्त कर सकते हैं, अतः जिसके समस्त रागादिक दोष विलीन हो गये हैं और समस्त गुणगण प्रकट हो गये हैं ऐसे अरिहंतसिद्ध परमात्मा का ही ध्यान करना आत्मार्थी जीवों को महतकर है। १०. ध्याता तासु मुमुक्षु बखान, जे जिनमत तयारथ जान-जिन्होंने रागद्वेषादिक अंतरंग शत्रुओं को सम्पूर्णतया जीत लिया है ऐसे जिनेश्वर भगवान द्वारा कथन किये तत्त्व को भलो भांति जान कर-समझकर जिसको जन्ममर• णाादक दुःख को सर्वथा क्षय कर मोक्ष सम्बन्धो अक्षयअविचल सुख प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा जगी है ऐसे मुमुक्षु जन ही सचमुच पूर्वोक्त वीतराग परमात्मा का ध्यान करने के अधिकारी हैं। ११. लही भव्यता मोटो मान-जन्म, जरा और मरण के दुःख से सर्वथा मुक्त होकर मोक्ष सम्बन्धी अक्षय सुख प्राप्त करने का अधिकारी बनना अर्थात् उसकी योग्यता प्राप्त करना यह ही सचमुच आत्मसत्कार (Self respect ) समझना चाहिये । १२. कवण अभव्य त्रिभुवन अपमान-पूर्वोक्त भव्यतासे विपरीत अभव्यता मोक्ष सम्बन्धो शाश्वत सुख से सदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035213
Book TitlePrashnottarmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherVardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages194
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy