SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा :: १२:: गर्भावास में जीव को महादुर्गधी और परतंत्रता का पूरा ख्याल दिनप्रतिदिन होता रहता है । इससे वह मूछित प्राय अवस्था भोगता है और कैदखाने में से भी किसी को अनुकम्पा से मुक्त हो सकता है, अथवा दुःख को कम कर सकता है, किन्तु ऐसा गर्भावास में नहीं हो सकता; इतना ही नही परन्तु उसमें अति दुर्गधी और परतंत्रता का पूरा पूरा अनुभव करना पडता है । ऐसे गर्भावास के दुःख से भी माता की योनीद्वारा बाहर निकलते हुए जन्मसमय जीव को अत्यन्त दुःख होता है । उस समय दुःख सचमुच रोंगटे खड़े कर देनेवाला है । इससे भी अनन्ता दुःख जोव को मरणसमय प्रतीत होता है । इसकी सूक्ष्म झांखी अन्य जीवों को भी उस समय अनुभव करते दुःख का अपनी आंखों से देखने पर नजर आती है । यह तो सिर्फ एक समय के दुःख की बात है, किन्तु ऐसे अनन्त जन्ममरण के फेरे में जीव घूमता ही रहता है । जब तक जन्ममरण के बीजभूत, राग, द्वेष, मोह, अज्ञान प्रमुख दोष को दूर करने का जीव प्रयत्न नहीं करता तब तक ऐसे अनन्न दुःखों में से उसका छुटकारा होना असम्भव है और राग, द्वेषादिक दोषों को निर्मूल किया कि तुरन्त हो जन्म-मरण के अनन्त दुःखों का अन्त होना निश्चय समझ लेना चाहिये। ६. आत्मबोध ज्ञान हितकार-जिससे आत्मा का स्वरूप प्रकट हो, आत्मा को हितकारी गुण आर अहितकारी दोष का भान हो, जिससे हितकारी वस्तु का ही ग्रहण आर अहितकारी वस्तु को त्याग करने का लक्ष्य जगे, वो तत्त्वज्ञान आत्मा को अत्यन्त हितकारी है । संत साधुजनों की यथाविध उपासना कर के यह प्राप्त करने योग्य है, इस से विज्ञान-विवेक जागृत होता है। कहा है कि " सो कहिये सो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035213
Book TitlePrashnottarmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherVardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1940
Total Pages194
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy