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.. प्रश्न नर सातमों
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नासिए भिन्नं ।। ६६ ।। व्याख्या-स्थापनाचार्ये अस्थापिते-ऽकृतमन्त्रन्यासे स्थापिते-कृतमन्त्रन्यास (च) पादादौ लग्ने क्रमेण भिन्नलघु (गुरु)मासश्च, तथा तयोर्हस्तात्स्थापनाचार्यस्थानाद्वा प्रमादेन पातने आदितोऽवज्ञामोचनादौ क्रमेण लघुमास-गुरुमासौ" इत्यादि श्रीश्राद्धजीतकल्पमाहे काउ छइ परं ऋषीमती मानउ तथा म मानउ । वली-पोसहशालामांहि जे स्थापनाचार्य हुस्यइ ते यावत्कथिकजि हुस्यइ, एवं प्रीछेज्यो । वली जइ इरियावही अणपडिक्कम्यां श्रावकनइ काइ क्रिया नज सूझइ ? तर तेह श्रावकनइ वतिनउ पूंजिवउ काजानउ उद्धरिवर श्रीस्थापनाचार्यनउ स्थापिवउ, एतला धर्मना कार्य किम सूझिस्यइ ? ए बोल पिण प्रसंगइ जोइवउ । श्रीतरुणप्रभसूरिइं इम लिख्यु छइ- "पंचपरमेष्ठि स्थापना निमित्ति स्थापनाचार्य आगइ मन वचन कायानइ सावधानता निमित्ति त्रिण्हि पंचपरमेष्ठि नमस्कार कहियइ, अथवा जिनशासनि जे कार्य कीजइ ते त्रिण्हि नमस्कार गुणन पूर्वक कीजइ, इणई कारणइ पुणि त्रिएह नमस्कार भणियई” एतलइ क्रिया करतां स्थापनाचार्य आगइत्रिएह नवकार कहिवा । वली जे कां-“जिनप्रतिमानइ मांडतां वली त्रिएह नवकार कही कांइ न मांडीयइ ? तत्रार्थे-श्रीजिनप्रतिमा ते सद्भाव स्थापना छई, स्यउ भाव ? जिनप्रतिमा प्राकार अंगोपांग सहित छइ, एतलइ असद्धावस्थापना नवकार कहीनइ थापीयइ, जइ अणथाप्यां क्रिया करइ ते प्रमाद अथवा कदाग्रह जाणीयइ छइ । वली ते पायरियांनी थापना जइ गुरुनीजि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com