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किया। आचार्य महाराजको रात्रिमें राजाके पास रहना पड़ता था। इसलिये जब कभी जाते, तो अपने साथ सबसे अधिक विश्वास पात्र साधुको भी ले जाते थे इस बार उन्होंने उस नये साधु (धूर्त राज-पुत्र) को ही सबसे अधिक विश्वासी समझा क्योंकि उसका वैराग्य और क्रिया देखकर उन्हें उसपर पूरा विश्वास हो गया था । अतएव उन्होंने उसे ही साथ चलनेको कहा । आचार्य महाराजका बचन सुन वह मायाचारी श्रमण मन-ही-मन में परम प्रसन्न हुआ भक्तिका नाट्य दिखाता हुआ आचार्य महाराजकी और अपनी उपधि उठाकर आचार्य महाराजके साथ हो गया। आचार्य महाराजके राजकुल में पहुंचनेपर प्रतिक्रमण आदि किये जानेके बाद राजा उदायी बहुत देरतक उनसे धर्म चर्चा करता रहा। जब रात अधिक बीत गयी, तब आचार्य महराज और राजा उदायी दोनों अपने-अपने (संस्थारक) बिछोने पर सो गये, किन्तु उस धूर्त साधुको निद्रा नआयी क्योंकि " निद्रापि नेति भीतैव रौद्रध्यानवतां नृणाम्।” जब आधी रात बीत गयी, तब उस दुरात्मा साधुने अर्थात् रजोहरण (मोघा ) में से एक तीक्ष्ण छुरी निकाली और उसीसे राजा उदयीका गला काट डाला। और पहरे दारोंसे जंगल जाने का बहाना कर के राजकुलसे बाहर निकल गया। थोड़ी देरके बाद जब माचार्य महाराजकी नींद खुली, और उन्होंने इस महान महत्वको देखा, तब उनका हृदय भर आया । उन्होंने कातर इष्टिसे साधुकी भोर देखा; किन्तु उसका तो यहाँ पर
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