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पुत्र-रन उससे उत्पन्न हुआ। उस पुत्रको देखकर दोनों दम्पतीके वर्षका पार न रहा । देवदत्तने विचारा कि घर जानेपर इस नव जान पुत्रका नाम रखा जायेगा: पर उसके साथ के लोग उसे अनिका-पुत्र कह कर पुकारने लगे । थोड़े दिनोंमें देवदत्त सकुशल अपने नगरमें पहुँचा। और माता-पिता के सामने विनोत मासे खड़ा होकर बोला, – “यह आपकी पुत्रवधू तथा यह शिशु मापका पौत्र है ।" यह सुनकर उसके पिता परम प्रसन्न हुए, उन्होंने लड़केका मस्तक चूमा और वड़े हर्ष के साथ पौत्रका नाम 'सन्धीरण' रक्षा यद्यपि उसका नाम सन्धीरण रखा गया; पर पूर्व अभ्यासके कारण लोग उसे अन्निका पुत्र ही कहते थे । वह चालक बनपनसे ही बड़ा सुशील और सचरित्र था । और कभी कभी संसारकी असारतावर भी विचार किया करता था । युवाबस्था प्राप्त करते ही संसारसे उसका मन विरक्त हो गया। एक दिन उसने अपने माता-पिता मादिसे भाज्ञा लेकर श्रीजयसिंदाखार्य के पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली । थाड़ हो दिमोंमें उस महात्माने निरतिचार चारित्रसे अपने संबित कर्मरूप कांटेको नूरकर तपकर अग्नि से कर्मरूप मलको मस्मकर दिया और धुत पारग तथा ज्ञान-दर्शन चारित्र में परिणत हो गया। इसके बाद गुरु महाराजने भी इन्हें योग्य सहर आचार्य पदसे विभूविन किया । एक दिन श्रीअग्निका पुत्रावार्य विहार करते हुए गंगा
सीर पर "पुष्पमत्र" नामक नगरमें पहुँचे । उस नगर में पुष्प केतु वामका राजा राज्य करता था । उसको रामो का नाम दुष्यनको
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