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________________ आगम (१९) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [१९] भाग 26 “निरयावलिका” – उपांगसूत्र- ८ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१९] उपांगसूत्र-[०८] निरयावलिका मूलं एवं चन्द्रसूरि - विरचिता वृत्तिः वासे जाई कुलाई भवंति अड़ाई जहा दढप्पइनो जाब सिज्झिहिति बुज्झिहिति नाव अंतं काहिति । तं एवं खलु मंबू ! समणेण भगवया जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पदमरस अज्झयणस्स अयमहे पन्नत्ते ॥ ॥ पढमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ १ ॥ जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्टे पनचे, दोवस्स णं भंते अजयणस्स निरयाबलियाण समणेण भगवया जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते १ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समपर्ण चंपा नामै नगरी होत्या । पुन्नभद्दे चेइए । कोणिए राया । पउमावई देवी । तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रनो भज्जा कोणिस्स रनो चुल्लमाया सुकाली नामं देवी होत्या, सुकुमाला । तीसे णं सुकालीए देवीर पुते सुकाले नाम कुमारे होत्या, सुकुमाले । तते णं से सुकाले कुमारे अन्नया कयाति तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कालो कुमारो निरवसेसं तं चैव जान महाविदेहे वासे अंत काहिति ॥ २ ॥ ● एवं सेसा वि अट्ठ अज्झयणा नेयद्वा पढमसरिसा, णवरं मायात सरिसणामाओ ॥ १० ॥ ॥ निरयाबळियातो सम्मत्तातो । निक्वेवो सधेसि भाणियवो वहा ॥ ॥ पढमो वग्गो सम्मत्तो ॥ मूलसूत्र - २०, २१ ॥ इति निरयावलिकाख्योपाङ्गव्याख्या || ta Use On 04-46-480449400440)-40000 150/ निरयावलिका-उवंगसूत्र [८] मूलं एवं चंद्रसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ताः मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] ~ 50~
SR No.035026
Book TitleSavruttik Aagam Sootraani 1 Part 26 Niryavalika Kalpvatansika Pushpika Pushpchulika Vrushnidasha Mool evam Vrutti Chatusharan Aaturpratyakhyan Bhaktparigna Tandulvaicharik Sanstarak Gacchachar Ganivijja Devendrastav Mool evam Chhaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherVardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
Publication Year2017
Total Pages312
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nirayavalika
File Size66 MB
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