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________________ हो तबही टोपीको पघड़ी मानने वाले टोपीवालेको कह सकते हो कि पघडीको टोपी क्यों मानता है ? परंतु वह टोपीवाला आपको ऐसा कैसे कह सकताहै कि आप टोपीको पघडी क्यो बोलते हो? इन्द्र०-देखिये! शास्त्रकार खुद फरमाते है कि "द्वयोरपि विद्यमानत्वेन तस्या अपि आराधनं जातमेव" वकी०-पहले तो आप वादीकी आपत्ति को ही नहीं समझे, तिसपर शास्त्रकारने जो उत्तर दीया उस उत्तरकों तो आप नहीं ही समझें, उसमें आश्चर्य ही क्या ? देखिये ! पहले तो बात यह है कि पर्वतिथि स्वतंत्र ही रहती है पर्वतिथिके अंदर किसीका दखल नहीं रहता! एक राज्य में जिस प्रकार दो राजा नहीं रह सकते इसी वजह से चतुर्दशीके क्षय वख्त पूर्णिमाके दिन चतुर्दशीको ले जाने वाले खरतरको शास्त्रकारने पूर्णिमाके रोज चौदश और पुनम दोनोंकी शरीकता नहीं होनेसे उस दिन पूर्णिमाकी ही आराधना रहती है, ऐसा कहकर क्षय ऐसी चतुर्दशीका तो उसरोज तुमारेसे नाम भी सहन नहीं होता है.' ऐसी आपत्ति दी है. तबही शास्त्रकारको वादी कहता है किपूर्णिमाके क्षयमें आपभी तो चतुर्दशीके दिन पूर्णिमा ही आरा. धते हो और 'पंचांगकी चतुर्दशीके दिन' आप भी चतुर्दशीका नामभी नहीं लेते हो उसका क्या ? यहांपर ख्याल रखनेकी जरुरत है कि वादी चतुर्दशीके बजाय चतुर्दशी ही की आपत्ति देता है तबही शास्त्रकार उसे कहते है कि बाहरे तेरी विचार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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