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वृद्धि०-मतलब क्यो नहीं मिथ्या वातको दूरकर सत्यको प्रकाशमें लाना इसे आप अपना मुख्य उद्देश्य नहीं मानते ?
वकी०-हमे इन्द्रमलजीसे क्या सरोकार है ? उन्हे सत्यासत्यके निर्णयको जाननेकी अभिलाषा हो तो आवें. (इतने में)
गुला०-शायद शादीकी वजहसे फुरसद न हो.
वृद्धि०-फुरसद हो या न हो मैं अभी जाता हूँ और उन्हे इसी वक्त अपने साथ ही लिवा लाता हूँ. ( वृद्धिचंदजी जाते है और थोड़ी देर बाद इन्द्रमलजीके साथ वापिस आते है)
वकी०-आईये साहब! पधारीये!! इन्द्र०-(खुर्सी पर बैठते हुए) जीहां. गुला०-(इन्द्रमलजीसे) आपने तो गजबकी देरी करदी. इन्द्र०-मैं आही रहाथा कि इतनेमें वृद्धिचंदजीभी आगये.
गुला०-(वकीलसा० से)चलो अच्छा हुआ अब मूल विषय परही बात चलने दीजिये कहिये ! दो पंचमी होती है या नहीं ?
वकी०-ऐसा नहीं वास्तव में बात यहहै कि बारहों पर्वतिथियोंकी क्षयवृद्धि नहीं होती है (इतनेमें इन्द्रमलजी अपनी जेबसे एक (चंडांशुंचंड) पंचांग निकालकर रखते है और वकीलसाहब से कहते है. )
इन्द्र०-जनाब! जरा चसा लगाकर देखिये कि बारहों (पर्व) तिथियोंकी क्षयवृद्धि होती है या नहीं.
वकी०-(अपने मुहरिर्र धूलचंदसे) मिस्टर धूलचंद ? धूल-जीहां.
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