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(७) द्वितीय किरण
(स्थान-सेठ सा० पूनमचंदजीका मकान) सूर्यास्त हुए कुछ समय व्यतीत हो चुका है सेठ पूनमचं. दजीके यहां लडकेकी शादी होनेकी वजहसे उनके मकानके सामने एक भव्य मंडप तना हुआ है मंडपमें शोभनीय हंडो
और झुमरोके बीचमें बिजलीकी बत्तियें लगी हुई है स्वम्भ स्थम्भ पर किनारीकी चमकसे चमकते हुए रंगबिरंगे वस्त्र लटक रहे है प्रत्येक स्थंभको दूसरे स्थंम्भसे जोड़ती हुई महरापोंमें विजलीकी रोशनीसे देदीप्यमान तोरणों और वंदरवारोंसे एक अनुपम आभा प्रगट होकर मंडपको इन्द्रभवनमें परिणित कर रही है मोटे मोटे गदेले बिछे होकर कारीगरीके नमुने ऐसे कालीन ओढाये हुए है और प्रत्येक दिवालके सहारे उन कालीनोंके छोरको ढकते हुए विशाल व अल्पकाय मखमली तकिये जुटे हुए है. मंडपमें लगे हुए बिल्लोरी आईने मंडपमें उसकी सानीके दूसरे मंडपका दृश्य खड़ाकर मंडपकी शोभा द्विगुनित कर रहे है. मंडपके ठीक बीचोबीच एक भी. मकाय गद्देपर शेठ पूनमचंदजी बैठे हुए है उनके पासमें इन्द्र. मलजी व अन्य दोचार व्यक्ति बैठे हुए है.
शेठ०-(इन्द्रमलजीसे) कहिये लग्नसमय निश्चित करनेके लिये कितने व्यक्तिओंको जाना चाहिये ?
इन्द्र०-बीसेक मनुष्यतो जाने चाहियेही.
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