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________________ साहब है, आप दोनो जनोंने यहां बैठे हुए सभासदोकी अनुमतिसे आप दोनोके परस्पर होती हुई तिथिचर्चामें मुझको मध्यस्थ बनाया है. वादीका कहना ऐसा है कि-पर्वतिथि, २-५-८-१११४ पूर्णिमा और अमावास्या इन पर्वतिथियों का क्षय हो तब क्षय बोलना, व, मानना अगर तो क्षयतिथि पूर्वतिथिके साथ मिलकर दोनो शामिल है एसा मानना व बोलना. और पर्वतिथियोंकी वृद्धि हो तब वृद्धि तरीके ही मानना ! अर्थात् तब दो दूज है, दो चतुर्दशी है, ऐसा बोलना व मानना! तब प्रतिवादीका कहना एसा है कि-इन उपरोक्त पर्वतिथियोंका (लौकिक पंचांगमें ) क्षय हो तब पूर्वतिथि याने १-४-७-१०-१३ इन तिथियों का क्षय बोलना व मानना वैसे ही वृद्धि हो तबभी पूर्वअपर्वतिथिहीकी वृद्धि मानना. इसके पुरावेमें दोनोहीकी तरफसे तत्वतरंगिणी नामक ग्रन्थ पेश करने में आया है. दोनोकी दलीलें (प्रश्नोत्तर) मैंने सुनी. वादी, 'द्वयोरपि विद्यमानत्वेन तस्सा अप्याराधनं जातम्' तथा " एवं क्षीणतिथावपि, कार्यद्वयमद्यकतवानहमित्यादयो दृष्टान्ताः स्वयमुद्याः" इन पाठोंसे अपनी मान्यताकी सिद्धि होना बताते है ! अर्थात् क्षयप्रसंगमें पूर्वतिथिके अंदर दोनो तिथियों (चतुर्दशी पूर्णिमा) का विद्यमानपना होनेसे एक तिथिकी आराधनामें दूसरी तिथि (याने क्षयतिथि) की आराधना भी हो जाती है ! इसी तरहकी स्वमान्यता मुजब क्षीणतिथिके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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