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ये लोगभी चौमासी संबंधि पूर्णिमाके क्षयमें तो त्रयोदशीहीका क्षय करते है, और वृद्धिमें भी त्रयोदशी हीकी वृद्धि करते हैं. पूर्णिमाकी क्षयवृद्धि के वक्त एकमकी क्षयवृद्धिके मुआफिक तीन चौमासी संबंधि पूर्णिमाकी क्षयवृद्धिके वक्ततो त्रयोदशीकी ही क्षयवृद्धिका 'उन पत्रकवालों का' पाठ जं० वि० ने यहां क्यों नहीं प्रगट किया ? करेभी कैसे ? करे तो तुमारे गुरूजीका मेलसेलिया मत चलेभी कैसे ? अब आगेको सुनिये ! " विस्मृतौ प्रतिपद्यपि " भूल जाय तो एकममें भी करे, ऐसाही हीरप्रश्नका पाठ है, नकि - " पूर्णिमायास्तपः प्रतिपदि " ऐसा, देवसूरवाले उस वादिको कहते है कि - " त्रयोदशी चतुर्दश्योः " यह पाठमें द्विवचनात्मक प्रयोग है और " त्रयोदश्यां प्रतिपदि " ये दोनो प्रयोग एकवचनात्मक है; इनका भी कुछ ख्याल करना चाहिये. उन पत्रकारको ऐसा हितोपदेश करनेवाले देवसूरवालों को 'वैयाकरणपास' ऐसा कहकर वे पत्रकवाले गाली देते है. ( जैसे कि जं० वि० ने भी वायड़ा कहकर गाली दी है) नकि - वैयाकरण के कानुन से अर्थ करते है ! (जैसे जं० वि० ) ऐसा होने परभी इस पत्र कसे हमारी बातको तो पुष्टि ही मिलती है. जैसे कि- इस लिखने के पहलेसेही जैनसमाजमें चतुर्दशी पूर्णिमा के क्षयमें त्रयोदशीका क्षय हीं होता है, यहतो निर्विवाद ही सिद्ध हो चुका है. नहिं तो वह पत्रकार ऐसी आपत्ति क्यों देता ? व आपके गुरूदेव 'पर्वतिथिके क्षयवृद्धिके वक्त पूर्व और पूर्वतर अपर्वतिथिकाही क्षयवृद्धि करने का प्राचीन रीवाजको' जो चालीस
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