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सप्तमी के दिन लोगोंको बोध (जानने के लिये यह पटहोवो. पण (डुडी पीटाना ) मेरे हुक्मसे होता है. हे देवी! तीनों लोकमें दुर्लभ ऐसा चतुर्दशी अष्टमीका पर्व जो मनुष्य भक्तिपूर्वक करता है, सो मोक्षपदको प्राप्त होता है. अर्हद्धर्मसे वासित ऐसे मृग, सिंह वगैरहके बच्चे भी अष्टमी चतुर्दशी के दिन आहार नहीं लेते है. प्रत्यक्षस्वरूप 'धर्ममूर्तिः' ऐसा वह धर्मवान् हमेशा अष्टमीचतुर्दशी पर्वको 'आदीश्वर प्रभुके चरण मुताबिक' आरा धन करता है ! इसी से ( इन पुरावों से) पाक्षिककृत्यका चतुर्दशीमें होना आगम के साथ विरोध रहीत देखने में आता है. नकि पूर्णिमामें ! ये वाक्य तेरे आंतरचक्षुके लिये अंजन ही है. मेरे जैसे मित्र के वाक्यसे तूं इन आंतरलोचनको भी अलंकृत क्यों नहीं करता है ? अब इस विस्तारसें बस........" अथ च वृद्धौ या तिथिराराध्या तामाह" अब वृद्धि के अंदर जो तिथि आराध्य है उसको कहते है.
" संपुण्णत्ति अकाउं वुट्टीए धिप्पई न पुव्यतिही । जं जा जंमिहु दिवसे समप्पई सा पमाणंति ॥ १७ ॥
टीका - प्रकरणात तिथेर्बुद्धौ सत्यामपि, चोप्यर्थे ज्ञेयः, अथ संपूर्णा तिथिरिति भ्रान्त्या कृत्वाऽऽराध्यत्वेन पूर्वा तिथिर्न गृह्यते, किंतूत्तरैव, यतः किमिदं तिथेर्वृद्धत्वं नाम १ प्राप्तद्विगुणस्वरूपत्वं वा प्राप्ताधिकसूर्योदयत्वं वा प्राप्तसूर्योदयद्वयखं वा द्वितीयमूर्योदयमवाप्य समाप्तत्वं वा ? आयोऽसंभवी, एकादिन्यूनाधिकविंशत्युत्तरशतसाध्यारिकामान प्रसंगात्, शेषेषु त्रिष्वपि
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