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(१३६) प्रयोदश्यां च सप्तम्या, लोकबोधायभामिनि । अयं हि पटहोद्घोषो, मदादेशात् प्रजायते ॥ ३३ ॥ चतुर्दश्यष्टमी पर्व, त्रैलोक्ये देवी ! दुर्लभं । करोति यो जनो भक्त्या , स याति परमं पदम् ॥ ३४ ॥ अष्टम्यां पाक्षिके कृत्ये, मृगसिंहादि शावकाः । अप्याहारं न गृह्णन्ति, येऽर्हद्धर्मेण वासिताः ॥ ४४ ॥ चतुर्दश्यष्टमीपर्व, दृष्टधर्मा सधर्मवान् ।। नित्यमाराधयामास, श्रीयुगादिजिनांघ्रीवत् ॥ ९०॥"
ततश्चतुर्दश्यां पाक्षिककृत्यमागमाविरोधात दृश्यते, न तु पञ्चदश्यामित्येतद्वचनं तवान्तरलोचनाञ्जनमेवास्तीति किमिति मारक सुहृद् वचसा नालंकरोष्यांतरलोचनमनेनेत्यलमतिपल्ल. वेनेति गाथार्थः ॥ १६ ॥
__ अर्थ:-जिस करके महानिशीथादि ग्रन्योमें चतुर्दशीके दिन उपवास, चैत्यपरिपाटी और अन्य वसतीमें रहे हुए साधुओंको वंदन नहीं करनेसे जिनेश्वर देवोने जैसा प्रायश्चित्त कहा है, ऐमा निश्चय करके पूर्णिमाके दिन पाक्षिककृत्य, जि. नेश्वर देवोने नहीं कहा है. यदि कहा होता तो 'चतुर्दशी और पूर्णिमा' दोनो जगह प्रायश्चितके एक एक उपवासके नियमसे तीनोही चातुर्मासीके मुआफिक सब ही चतुर्दशी और पूर्णिमाको बेले (छट्ट) का तप कहा हुआ होता. सोतो कहा नहीं है, ऐसी रीतिसे चतुर्दशीमें पाक्षिककृत्य ग्रन्थानुसार युक्तियुक्त होते हुएभी पूर्णिमामें ही पाक्षिककत्यका विधान करना सो तो
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