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________________ दर्शनायोत्तरार्द्धन दृष्टांतमाह-"न य पुण"त्ति न च पुनस्ताम्रादीनां मूल्यं ददाति प्रतीच्छति वेति गम्यं, अल्पमूल्यत्वेन तदन्तर्गतत्वात् , कथं ?, हेतुविशेषं विना-कारणविशेषं विनेति, कोर्थः ? तुलारोपणाधवसरे तु तेषामपि पार्थक्येन गणनादिति । अर्थः-(अन्यसंगीके लक्षण कहते है.) सिर्फ रत्न न गिरजाय ऐसे अभिप्रायवाले पुरुषने ताम्रादि धातुमें नियोजित किया हुआ रत्न अगर गिरनेके भयसें वस्त्रसे बंधा हुआ रत्न, अन्य संगी कहलाता है. जैसे रत्नार्थी वस्त्रसे बंधा (रत्न) हो अगर ताम्रादिसे जड़ा हुआ (रत्न) हो तोभी उस (रत्न) को ग्रहण करता है। क्योंकि-वह अन्य संगी होते हुए भी अपने स्वरूपका परित्याग नहीं किया हुआ होनेसे अपने कार्यकों करने में समर्थ होता है ! ऐसा न होतो चाहिये-वैसे ( रत्न होते हुएभी) मूल्यको नहीं पा सकता है. और उस रत्नके स्थानमें (रत्नके बजाय) प्रिय ऐसे सुवर्णकोभी कोई ग्रहण नहीं करता है सबब उस (सुवर्ण) से रत्नका कार्य नहीं होता (इसी से कहते है कि) कारण विशेष विना उस (क्षीणचतुर्दशी) में त्रयोदशी है ऐसे व्यपदेश (याने नाम ) तककी शंकाभी नहीं करना, ऐसाही दिखानेको उत्तरार्ध गाथासे दिखाते है कि"नय पुण"त्ति ताम्रादिके मूल्यको, न तो कोई देता है और न कोइ लेता है. सबब कि अल्प मूल्यवाला होनेसे उस (रत्न) के अंदर समावेश हो जाता है. कैसे ? कारण विशेष बिना. इसका क्या मतलब ? तराजुमें तोलते वक्त उनकी (ताम्रादिकी) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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