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________________ बंदि०-साहब ! मैं लखनाउ शहरका रहनेवाला हूं. और दील्ली शहरसे हुजूरका नाम सुनकर यहां आया हूं; और मेरा नाम है मनःकल्पितचंद्र. भगवान आपका तपतेज बढावें तो यह बंदिजनभी कुछ पावे ! (शेठ चंपालालजीके सुपुत्र कुंवर माणकलालजी दस रूपेका नोट देते है, और बंदिजन खुश होकर रवाना होते हैं.) इतनेमें दो घोडेकी बग्धीमें बैठकर वर्गकी परी ही न हो! ऐसी घोरजान नामक वैश्या आई; और बडेही रूआबके साथ कुंवरसाहबको सलाम करके बैठ गई. इतनेमें मंडपभी ऐसा भरगया कि पांव धरनेको भी मुशिवत हो गई ! इधर घोरजानभी खडी होती है ! इसके दोनो तरफ दो सारंगीवाले खडे है ! पीछेकी ओर तबलची खडा है, और घोरजान बहोतही मधुर स्वरसे गाती है ! राग-जयजयवंति. शिवादे झुलावे प्रभुने मिजिनंदा-यह चाल कलियुग खोटा सबही बतावे, गरीब तवंगर सबही गावे-यह अंजली. राजा प्रजापर टेक्ष लगावे, . तोभी खकोशको खाली बतावे. ॥ कलि० ॥१॥ मोटर घोड़े खूष दोडावे, खो जमाना आया गावे. ॥ कलि० ॥२॥ कर्मचारी लोग सुके खावे, राजकोशसें तनखा पावे. ॥ कलि० ॥३॥ मनमाने सब एश उडावे, तोभी शिरपर कर्ज बतावे.॥ कलि० ॥ ४ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034996
Book TitleParvtithi Prakash Timir Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrailokya
PublisherMotichand Dipchand Thania
Publication Year1943
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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