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(१०५) जहां तहां अध्याहार लिया हैं अध्याहार लिया है ऐसा मुंहसे ही बोलना है, कि कोई शास्त्राधारसें ? कदाचित आराधनाको अध्याहार ले लेओंगें परंतु प्रथमाके स्थानमें सप्तमीको अध्याहार किस आधारसे लेओंगें ?
इन्द्र०-यदि ऐसा जो ग्रहण नहीं करेंगें तबतो परस्पर विरोध आवेगा.
वकी०-आपको व्याकरण शास्त्रके सामान्य और विशेष ऐसे नियमोंकी मालूम नहीं होने से ऐसा फरमाते है, देखिये व्याकरणका एक नियम है कि-"इकोयणचि ६ । १ । ७७" , इसका अर्थ है कि-"इ" कायण होता है अच् पर रहते. इ-उ-क-ल-इन चारोही स्वरोकों (चाहे दीघ हो चाहे हस्त्र हो) 'इक' कहते है, और तमाम ही स्वरोंको "अच्" कहते है. "सुधी+उपास्यः" अब यहांपर धकारोत्तरवर्ति जो ईकार है.' "ई" है और "उपास्य" शब्दका आदि जो 'उकार' है वह 'अच' है, तो यहांपर 'ई' का 'य' होता है.
यह सामान्य नियम है कि-जो सब जगह लग जाता है। जैसे 'भानु उदयः' यहां पर भी पूर्वोक्त नियम सामान्य होनेसे लग सकता है, परंतु यहां दोनो उकार सवर्णीय होने से विशेष नियमकी जरुरत हुई-तब इसके लिये और विशेष नियम बनाना पड़ा कि-अका सवर्णे दीर्घ ६ । १।१०१'
अर्थ:-'अक्'को सवर्ण पर रहते दीघ होता है. इस विशेष नियमसे 'यण' का (क्की) रूकावट हो गई; और 'दीर्घएका
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