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इन्द्र० - जैसे तुम्हारे यहां पूर्णिमाके क्षयमें पाक्षिक और चौमासीके छठ्ठ (बेला) का तप करनेके अभिग्रहवाला उत्तर दिन की एकमको लेकर तप पूर्तिवाला होता है, अर्थात् सिद्ध हुआ कि - उपरोक्त रीत्यानुसार ही निरंतर तप (वर्षभर में आते हुए सबही कल्याणकका तप) करनेवाला तपपूर्ति करता है. अब दूसरा, याने सान्तर (इस वर्ष में अमुक भगवानका ही कल्याणक) तप करनेवाला तो वर्षमें होनेवाली दूसरे भगवानकी उस कल्याणक तिथिको आते दूसरे वर्ष में ग्रहण करके ही तपपूर्ति उपवास आदि होता है ! वैसेही बहुतसे उपवासोंके प्रत्याख्यान एकही दिनमें हो सकते है. और पर्वतिथिकी आराधना तो बहोत करके पौषधादि अनुष्ठान से होती है, कि जो अनुष्ठान एक दिनमें एकही नियमित रहता है, परंतु एक दिनमें दो तीन दिनका एक साथ तो होता ही नहीं है. इसी लिये जब पर्वतिथि साथमें आवे, उसवक्त उत्तरतिथिका क्षय होवे, तब दोनो तिथियें एक दिन में कर लेवे, तो दो दिन सचित्तका त्याग हो, अगर हरिका त्याग हो, या अब्रह्मका त्याग हो तो एकदिन सचित्तका त्याग रखनेसे, एक दिन हरि नहीं खानेसे, एकदिन ब्रह्मचर्य पालने से उसका दो तिथि दो दिन पाल्नेका नियम अखंडित नहीं रहता है !
पर्व तिथिकी दिवस प्रतिबद्ध क्रिया जैसे कि-पौषध, सचित्त त्याग, ब्रह्मचर्य पालनादिकी विवक्षा नहीं करते हुए वर्त्तमान नूतन मति कल्याणक तिथिके मुताबिक सिर्फ पर्वतिथिके भी तपहीको पूर्ण करने की विवक्षाको सामने धरते है, यह भारी अन्याय है ! सिर्फ तपके लिये तो पर्वतिथि और कल्याणकतिथि तीन चार आदि साथमें आये तब कैसे करना ? इसका खुलासा तो उपर खुद आचार्य महाराजने शास्त्रीय पुरावे वाक्य में कितनेही वर्षोंके पहलेसेही फरमा दिया है.
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