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तूं ही वीतराग देव, रागद्वेष टालि देख, तू ही तो कहावे सिद्ध, अष्ट कर्म नास से । , तूं ही आचारज है, आचरै जो पंचाचार, तू ही उवज्झाय जिन, वाणी के प्रकाशते । पर को ममत्व त्याग, तू ही है ऋषिराय, श्रावक पुनीत व्रत, एकादश भासते । सम्यक स्वभाव तेरा, शास्त्र तेरी पुनिवानी, तूं ही भया ज्ञानी निज, रूप में निवासते । जब ये चिदानन्द निज, रूप को संभार देखे, कोन हम, कौन कर्म, कहाँ को मिलाप है। राग द्वेष मोह ने, अनादि ते भ्रमायो हमें, तातें हम भूल गये, लामे पुंज पाप में । राग द्वेष मोह तो, हमारे स्वभाव नाहि, हम तो अनन्त ज्ञान, भानु सो कथा कहे । जैसो शिव क्षेत्र बसे, तैसो ब्रह्म यहाँ बसे, तीनों काल शुद्ध रूप, भया निज आप में ।
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