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– रत्न कणिकायें - जीव द्रव्य की दो दशा, संसारी अरु सिद्ध, पंच विकल्प अजीवके, अक्षय अनादि असिद्ध । गर्भित पुद्गल पिण्ड में, अलख अमूर्ति देव, फिरै सहज भव चक्र में, यदि अनादि की टेव । पुद्गल की संगति करे, पुद्गल में ही प्रीत, पुद्गल को आपा गिने, यही भ्रम की रीत । जो जो पुद्गल की दशा, सो निज माने हंस, यही भ्रम विभाव को, बढे कर्म को वंश । कम्प रोग है पाप पद, अकर रोग है पुण्य, ज्ञान रूप है आत्मा, दोऊ रोग से शून्य । मूरख मिथ्यादृष्टि जो, निरखी जग में हौंस, डर ही जीव सब पाप से, करे पुण्य में हौंस । दोनों रोग समान हैं, मुढ न जाने रीत, कम्प रोग से भय करे, अकर रोग में प्रीत । जाके चित्त जैसी दशा, ताकि तैसी दृष्टि, पण्डितभव खंडित करे, मूढ बढावे सृष्टि ।
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अकर-मृगो
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