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द्विगर्त (डुगर ) देश के कवि
३६१ भावार्थ-सीवा को जीतकर फिर गुहासन से होकर गोपीपुर में डेरे किए।
__ कवित्त कागद पटायो अभिरायहुँ को वृजराज,
ऐसे लिखी देवदत्त दूत समुझाइ के । होते प्रादमी त जमुनाल जसवाल जाते,
कहो एक शिष्य जाको जानो चित लाइ के॥ पापिन को भूपती घुमंडा यो निकार दीजै,
बीजै सब वाको देश गोपीपुर आइ के। नाही तो तियार हूजे भूपत से लरबे को,
प्रावत हैं शूरवीर प्रति ही रिसाइ के ॥ ३६॥ भावार्थ-वृजराजदेव ने एक दूत को पत्र देकर और समझाकर अभिरायसिह ( जसापति) को लिख भेजा कि जमुबालों (जम्मूपति), जसवालों (जसुमाँपति) की प्रादि से मित्रता चली पाती है इस कारण हम भापको एक शिक्षा देते हैं, चित्त लगाकर श्रवण करें। पापी राजा घुमंडचंद (कांगड़ापति ) जो मापके पास है उसे अपने देश से निकाल दीजिए और उसका देश गोपीपुर माकर हमसे लीजिए। अस्वीकार हो तो युद्ध के लिये तैयार हो जाइए। हमारे शूर-वीर क्रुद्ध हुए पा रहे हैं। सोरठा-पढ़ि कागद प्रभिराय हितकर मानी शीष वह ।
जानि मीत वृजराय माइ मिल्यो वृजराज से ॥४०॥ मावार्थ-राजा मभिरायसिंह ने पत्र पढ़कर राजकुमार (वृजराजदेव) की हितकर शिक्षा मान ली और तुरंत वृजराजदेव से प्रा मिला।
कवित्त पंचन में मानि के बुलायो प्रति प्रादर से,
दीनो पह देश चित मानंद बढ़ाइ के ।
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