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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
में विलीन होती और फिर प्रकट होती हुई वह अनेक रूप अवश्य धारण करती आई है परंतु उसका प्रवाह कभी बंद नहीं हुआ । पंद्रहवीं शताब्दी में इस धारा ने जो रूप धारण किया वह किसी उपयुक्त नाम के प्रभाव में 'निर्गुण संत संप्रदाय' कहलाता है । इसी संप्रदाय के स्वरूप का उद्घाटन इस निबंध का विषय है । इस संप्रदाय के प्रवर्तकों ने अपने सर्वजनोपयोगी उपदेशों के लिये जनभाषा हिंदी को ही अपनाया था । इसलिये उसका प्रतिरूप हिंदी के काव्य - साहित्य में सुरक्षित है । सामाजिक, धार्मिक राजनीतिक आदि अनेक कारणों ने मिलकर इस प्रदिोलन को रूप की वह नवीनता और भाव की वह गहनता प्रदान की जो इसकी विशेषता है । मुसलमानों की भारत विजय के बाद भारत की राजनीतिक अवस्था ने, जिसमें दो अत्यंत विरोधी संस्कृतियों का व्यापक संघर्ष आरंभ हुआ, इस प्रदिोलन के प्रसार के लिये उपयुक्त भूमिका प्रस्तुत की। संत-संप्रदाय की विचार-धारा को अच्छी तरह सम
ने के लिये यह आवश्यक है कि हम पहले उन विशेष परिस्थितियों से परिचित हो जायँ, जिनमें उसका जन्म हुआ । अतएव पहले उन्हीं परिस्थितियों का उल्लेख किया जाता है ।
२. मुस्लिम आक्रमण
यद्यपि कुरान ऐलान करती है कि "धर्म में बल का प्रयोग नहीं होना चाहिए । विश्वास लाने के लिये कोई मजबूर नहीं किया जा सकता । विश्वास केवल परमात्मा की प्रेरणा से हो सकता है", फिर भी इस्लाम के प्रसार में तलवार ही का अधिक हाथ रहा है । अरबों ने, और उनके बाद इस्लाम धर्म में प्रवेश करनेवाली ग्रन्य जातियों ने देश-देशांतरे में विनाश का प्रकांड तांडव उपस्थिव कर दिया। चीन से स्पेन तक की भूमि पर उन्होंने खुदा का कहर
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( १ ) सेल; "अल कुरान", पृ० २०३ ।
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