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उदयपुर के मन्दिर
७७ और आगे बढ़कर, कवि समीनाखेडे का वर्णन करता है“मगरा माछला उत्तंग,
किसनपोल ही अतिवंक । घेडा समीने श्री पास,
पूजे परम ही हुलास ॥ १३ ॥ दशमी दिवस का मेलाक,
नरथट होत हे मेलाक । साहमी वच्छलां पकवान,
चर्चा अष्टका मंडाण" ॥ १४ ॥ इसके पश्चात्, कवि ने केशरियाजी का वर्णन किया है। "अढारकोस ही अधिकार,
धुलेव नगर है विस्तार । केशरियानाथ है विख्यात,
जात्रु आवते केई जात ॥ १५ ॥" अन्त में कवि ने आघाट (आहर) का वर्णन किया है। वह लिखता है, कि" आघाट गाम हे परसीद्ध,
तपाविरुद ही तिहां लीघ । देहरा पंचका. मंडाण,
सिखरबन्ध हे पहिचान ॥ १८ ॥ पार्श्वप्रभुजी जिनाल,
पेष्यो परम हे दयाल ।
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