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मेवाड-प्रवेश
बोए हुए बीजों से जो अंकुर निकले हैं, उन्हें यदि सिंचन करके बढाना हो, तो पधारिये और यदि सूखने देना हो तो जैसी आपकी इच्छा"।
उदयपुर के युवकों की इस विनति में, हृदय की वेदना थी। इस विनति में, गुरुभक्ति थी। यह विनति, कोई व्यवहारिक विनति न थी। इसमें, धर्म की सच्ची लगन थी। दया, दान, मूर्तिपूजा, आदि अनादिसिद्ध, शास्त्रसम्मत, सिद्धान्तवादी श्रद्धालु जैनों पर होनेवाले आक्रमण से बचाने की यह पुकार थी। युवकों की इस विनति से, किस कठोर हृदयवाले साधु का हदय न पिगलता। किन्तु, हमारे लिये धर्मसंकट था। 'पाटन' का वचन पक्का था। भला वचन भंग का पातक कैसे उठाया जा सकता था?। और इधर इन युवकों की मर्मभेदी विनति का भी कैसे तिरस्कार किया जा सकता था ?। इस तरह की उलझन में अभी कुछ ही दिन व्यतीत हुए थे, कि इतने ही में उदयपुर का दूसरा डेप्युटेशन आ पहुँचा। उनकी आवश्यकता का इसी से अन्दाज लग गया । उनकी आवश्यकताओं का अनुमान करने के लिए, अब अधिक प्रमाणों की जरूरत न थी। अब तो ऐसा जान पड़ने लगा, कि पाटन की अपेक्षा भी शायद सेवा के लिये यह क्षेत्र अधिक उपयुक्त है। फिर भी, वचनबद्धता का प्रश्न सामने आता ही था। उदयपुर के गृहस्थ पाटन गये । संघ से विनति की और अपनी दुःख कथा कह सुनाई । परमदयालु, सच्चे शासनप्रेमी, वयोवृद्ध प्रवर्तकजी श्री कान्तिविजयजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com