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संयम, तप और त्याग का महत्त्व
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५ संयम, तप और त्याग का महत्त्व
महावीर ने अहिंसा, संयम और तप को उत्कृष्ट धर्म बताया है । २० देखा जाय तो अहिंसा को समझ लेने के पश्चात् उसे पुष्ट बनाने के लिये संयम और तप की आवश्यकता है। संयम का अर्थ है अपने ऊपर काबू रखना । समय समय पर मनुष्य के सामने अनेक प्रलोभन आकर उपस्थित होते हैं, अनेक आकर्षण सामने आकर उसे डांवाडोल बना देते हैं, इस से चपल और स्वेच्छाचारी चित्त का दमन करना कठिन हो जाता है । राग, द्वेष, काम, क्रोध, माया, लोभ और अहंकार के परवश होकर मनुष्य अपने ध्येय से च्युत हो जाता है, और अपना तथा लोक का कल्याण करने में असफल होता है । महावीर ने असंयम की-प्रमाद की-बहुत निन्दा की है और बताया है कि जैसे मरियल बैल को गाड़ी में जोतकर उस से दुर्गम जंगल को पार करना कठिन हो जाता है उसी प्रकार असंयत-प्रमादीपुरुष का अपने लक्ष्य तक पहुँचना कठिन है । इसीलिये उन्होंने विविध पाख्यानों द्वारा अपने भिक्षुओं को उपदेश दिया है कि हे आयुष्मान् श्रमणो! सांसारिक काम-वासनाओं से, प्रलोभनों से हमेशा दूर रहो, तथा विपुल धनराशि और मित्र-बांधवों को एक बार स्वेच्छापूर्वक छोड़कर फिर से उन की ओर मुंह मोड़कर न देखो।' जैसे सधा हुआ तथा कवचधारी घोड़ा युद्ध में विजय प्राप्त करता है, उसी प्रकार विवेकी जन जीवन-संग्राम में विजयी होकर इष्टसिद्धि प्राप्त करता है ।३१ विवेक होना इतनी सहज
२० दशवकालिक १.१ २८ उत्तराध्ययन ४.११-१२ २९ उत्तराध्ययन २७ ३ वही, १०.२६-३०
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