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महावीर वर्धमान वे समभाव रखते, उन के भाव किंचिन्मात्र भी विचलित न होते थे। ___ इस प्रकार बारह वर्ष की घोर साधना के पश्चात् महावीर ने जंभियग्राम के बाहर ऋजुवालिका नदी के तट पर स्थित एक खेत में शाल वृक्ष के नीचे गोदोहन आसन से उकडूं बैठे हुए ध्यानमग्न अवस्था में केवलज्ञान-दर्शन की-- बोधि की प्राप्ति की। महा तपस्वी की कठोर तपस्या सफल हुई, उनके हृदय-कपाट खुल गये, हृदय में प्रकाश ही प्रकाश मालूम पड़ने लगा, विकार सब शान्त हो गये, संशय सब मिट गये, ज्ञान का स्रोत उमड़ पड़ा, अब जानने को कुछ बाक़ी न रहा, जिस के जानने के लिये इतनी दौड़-धूप थी, उधेड़बुन थी, वह मिल गया। आज प्रथम बार विश्व के कल्याण का मार्ग स्पष्ट दृष्टिगोचर हुआ।
४ अहिंसा का उपदेश
महावीर के लोकोत्तर उपदेश की चर्चा सर्वत्र होने लगी। लोग दूर दूर से उन का उपदेश सुनने आये। बहुतों ने उन के धर्म में दीक्षा ली। इन में मगध, कोशल, विदेह आदि देशों के ग्यारह कुलीन विद्वान् ब्राह्मण मुख्य थे। सर्वप्रथम महावीर का उपदेश था अहिंसा। उन्हों ने कहा कि सब कोई जीना चाहता है, सब को अपना अपना जीवन प्रिय है, सब कोई सुखी बनना चाहता है, दुख से दूर रहना चाहता है, अतएव किसी प्राणी को कष्ट पहुँचाना ठीक नहीं ।२३ जो मनुष्य अपनी व्यथा को समझता है, वह दूसरों की व्यथा का अनुभव कर सकता है, और जो दूसरों की व्यथा
२२ प्राचारांग 8; कल्पसूत्र ५. ११२-१२०; प्रावश्यक नियुक्ति १११-५२७; प्रावश्यक चूणि पृ० २६८-३२३
२३ प्राचारांग २.८१; दशवकालिक ६.११ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com