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________________ [७] महामानव स्पष्ट है कि मुनिश्रीने इस पुस्तक को लिख कर एक खटकती हुई जैन साहित्य की कमी पूरी की थी और उसकी जिस कमी की ओर दोनों विद्वान जैन पंडितोंने इंगित किया है वह भी उनसे अज्ञात नहीं थी। इसीलिए तो उनने प्रस्तावना के पृष्ठ १६ में अपना लक्ष्य स्पष्ट करते हुए लिखा कि, " प्रस्तुत पुस्तक के जैनदर्शन में जो दर्शन शब्द है वह दार्शनिक तत्त्वज्ञान का सूचक दर्शन शब्द नहीं है, परन्तु धर्म-सम्प्रदाय का सूचक दर्शन शब्द है । अतः इस समूचे नाम का अर्थात् जैनदर्शन का अर्थ होता है जैनधर्मसम्प्रदाय की-उसके धार्मिक एवम् दार्शनिक विचारों की जानकारी करानेवाला । " परन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना कि उक्त ग्रन्थ में लेखकने मूर्तिपूजक श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के पूर्वग्रहों का ही प्रतिपादन किया होगा तो यह बड़ा ही लेखक के प्रति अक्षम्य अपराध होगा। लेखक का दृष्टिकोण निर्भीकता से सत्य प्रतिपादन का ही इस पुस्तक में आरम्भ से लेकर अन्त तक रहा है और उसने उसका बहुत ही अच्छी प्रकार निर्वाह किया है। पुस्तक का छठा खण्ड इसके लिए विशेषतया पठनीय और मननीय है। विद्वभोग्य संस्कृत और प्राकृत के जैन दार्शनिक ग्रन्थ दोनों ही जैन सम्प्रदायों के जैनाचार्यों के लिखे अनेक सुसम्पादित प्रकाशित हैं। उनमें से कुछ हिन्दी और गुजराती में अनूदित भी हो चुके हैं। परन्तु उनसे जैनधर्म का मर्म समझ कर उसे व्यवहार में लाने की इस पंचम-दुःषम आरे के वक-जड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034938
Book TitleMaha Manav Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherTapagaccha Jain Sangh
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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